*आर.के. सिन्हा*
अब लगता है कि अपने देश में सार्थक और सारगर्भित बहस का वातावरण सामाप्त हो चुका है। एक वर्ग इस तरह का सोशल मीडिया के माध्यम से मैदान में आ गया है, जो किसी विद्वान की राय को भी परमज्ञानी बनकर एक झटके में ही खारिज करने लग जाता है। इसका ताजा उदाहरण ले लीजिए केन्द्रीय श्रम और रोजगार मामलों के राज्य मंत्री संतोष गंगवार के उस बयान पर मचे तगड़े बवाल को जिसमें वे कहते हैं कि उत्तर भारत में रोजगार की कमी नहीं है कमी तो योग्य लोगों की है।अपने संसदीय क्षेत्र बरेली में एक कार्यक्रम में बोलते हुए श्री गंगवार ने कहा, "देश में रोजगार की कमी नहीं है. हमारे उत्तर भारत में जो रिक्रूटमेंट करने आते हैं, इस बात का सवाल करते हैं कि जिस पद के लिए रख रहे हैं, उसकी क्वालिटी का व्यक्ति हमें कम मिलता है।"
गंगवार जी एक अनुभवी राजनेता हैं। सात बार लगातार लोकसभा का चुनाव जीत चुके हैं । शायद उन चाँद सांसदों और मंत्रियों में अव्वल हैं जो सारे फोन स्वयं ही उठाते हैं। उनके मोबाइल नंबर लाखों लोगों के पास है जिसमें खास लोग भी हैं और आम मतदाता भी हैं ।अब यह बात समझ से परे है कि इसमें गंगवार जी ने कौन सी ऐसी बात कह दी जिसको लेकर उनकी निंदा होने लगी। क्या देश के श्रम मामलों के मंत्री को रोजगार देने वालों से लगातार फीडबैक नहीं मिलता होगा? उन्होंने उसी आधार पर अपने प्राप्त अनुभवों की बात निर्विकार भाव से रख दी।आठवीं बार लोकसभा के लिए निर्वाचित गंगवार जी ने यह भी कहा, "आज कल अखबारों में रोजगार की बात आ गई है. हम इसी मंत्रालय को देखने का काम कर रहे हैं, रोज ही इसकी निगरानी करते हैं। देश भर में रोजगार की कमी नहीं है। रोजगार बहुत है।" क्या सिर्फ 12 वीं या बीए की परीक्षा देने मात्र से आपको रोजगार मिल जाएगा? मंत्री जी एक तरह से कहना चाह रहे थे कि नौकरी पाने के लिए इंसान में पर्याप्त योग्यता होनी चाहिए। दरअसल हो यह रहा है कि बहुत से नौजवान जैसे-तैसे स्नातक या उससे मिलती-जुलती डिग्री लेने के बाद रोजगार के लिए आवेदन करने लगते हैं। हालांकि उन्हें कायदे से पांच लाइनें सही हिन्दी तक लिखने में भी पसीना आ जाता है। इसमें उनकी भी गलती नहीं है। हमारे देश में खासकर पूर्वी और उत्तर भारत में शिक्षा का गिरता स्तर ही इसका जिम्मेवार है।
हमारे यहां देश की आजादी के बाद से ही शिक्षा को रोजगार से जोड़ने की कभी गंभीर पहल ही नहीं हुई। नतीजा यह हुआ कि बेरोजगारों की फौज देश के लिए आफत बनती जा रही है। उत्तर भारत में तो शिक्षा का हाल सबको पता ही है। दरअसल वक्त का तकाजा है कि शिक्षा को रोजगारपरक बनाया जाए।इस दिशा में गुजरे कुछ सालों से मोदी सरकार में तो कुछ पहल तो हुई है। केन्द्र सरकार ने स्किल डेवलपमेंट मंत्रालय स्थापित किया है, जो देश भर में नौकरियों की आवश्यकता के मुताबिक बच्चों को ट्रेनिंग देने के कार्य में सक्रिय है। कोई बता दे कि इससे पहले हमारे यहां क्या हो रहा था?
पिछले सत्तर साल में तो हम ऐसे ग्रेजुएट पैदा कर रहे थे जो न हल जोत सकते थे, न गणित के मामूली हल निकल सकते थे न हिंदी या अंग्रेजी ही लिख सकते थे ।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी जब बुनियादी शिक्षा की बात चलाई थी तो उनका आशय यही था कि बच्चों को स्कूल में ही वोकेशनल ट्रेनिंग भी मिले ताकि वे स्कूल से निकलने के साथ कम पर लग जायें। गांधी की बुनियादी शिक्षा समाज को सर्वांगीण विकास की ओर ले जाती है। बुनियादी शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन का साधन गांधी जी ने बनाया था, मगर हमने उनके बुनियादी शिक्षा के मार्ग पर चलने की लंबे समय तक कोई कोशिश तो नहीं ही की, पूरी तरह उसका उपहास उड़ाते हुए नकार दिया।
देश में रोजगारपरक शिक्षा पर ही जोर देना होगा। अफसोस कि कांग्रेस की नेता प्रियंका गांधी वाड्रा ने गंगवार पर आरोप लगाना चालू कर दिया कि वे तो उत्तर भारतीयों का अपमान कर रहे हैं। अगर उन्हें गांधी जी के बुनियादी शिक्षा के बारे में थोड़ा बहुत भी पता होता तो वे ऐसा कुछ न कहती। पर उन्हें गांधी जी की शिक्षाओं से क्या मतलब? वे तो हर बात पर सिर्फ सियासत करना जानती हैं। वैसे भी उनके परिवार में कभी किसी ने कभी कोई नौकरी की नहीं है। इतनी अकूत संपत्ति बना ली थी कि नौकरी की जरूरत ही नहीं थी । सवाल यह है कि कोई केन्द्रीय मंत्री उत्तर भारत का या देश के किसी भाग का अपमान क्यों करेगा। गंगवार जी तो खुद उत्तर भारत से आते हैं। वे बेहद धीर गंभीर इंसान हैं। वे क्यों उत्तर भारतीयों के प्रति नकारात्मक रवैया रखेंगे। पर क्या यह सच नहीं कि हमारे यहां शिक्षण संस्थान डिग्री बांटने वाली दूकानें बन गई हैं। इनकी फैक्ल्टी का स्टाफ देख लीजिए तो सारी स्थिति साफ हो जाएगी। आपको मेडिकल कालेजों से लेकर इंजीनयरिंग और आर्किटेक्चर कालेजों में सही और शिक्षित फैक्ल्टी नहीं मिलेगी। तो फिर इन पेशेवर कालेजों से छात्र किस तरह के निकलेंगे। यही हालत अन्य शिक्षण संस्थानों का भी है।
इधर मुझे अपना अनुभव सांझा करने की अनुमति दे दीजिए। मेरे द्वारा स्थापित सिक्युरिटी एजेंसी में सवा दो लाख से अधिक नौजवान काम कर रहे हैं। पर हमें उन पदों को भरने के लिए योग्य लोग बड़ी ही मुश्किल से मिल पाते हैं, जहाँ पेशेवर शिक्षा की जरूरत होती है। हमारी कंपनी को अपने सहयोगी कर्मचारियों को प्रशिक्षित कर रोजगार के लायक बनाने के लिए पूरे देश में बीस से ज्यादा प्रशिक्षण केंद्र खोलने पड़े। रोजगार पैदा करने वालों का दु:ख भी तो समझिये । आप रोजगार देने के लिए तैयार बैठे हैं, पर आपको सही उम्मीदवार ही नहीं मिलता। यह बात मैं अपने निजी अनुभव से बता रहा हूं। अब जरा तुलना कर लें दक्षिण भारत की तो आप पाएँगे कि वहां से आने वाले बच्चे जीवन के सभी क्षेत्रों में बहुत बेहतर कर रहे हैं। भारत की आईटी सेक्टर में सफलता में दक्षिण भारत के पेशेवरों का योगदान अमूल्य रहा है। इसके पीछे मोटा-मोटी वहां के शिक्षण संस्थान का योगदान है।
एक बात युवाओं को भी समझनी होगी कि वे अपनी क्षमताओं को देखकर ही सपने पालें। यह ठीक है कि सपने देखना अच्छी बात है, पर हर इंसान को व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाने की भी जरूरत होती है। मेरे गृह प्रदेश बिहार के तमाम युवा सिविल सेवा की परीक्षा देने के बाद आईएएस या आईपीएस अफसर बनने का ख्वाब देखने लगते हैं। उनमें से बहुत से अपने गरीब किसान पिता की जमीन बेचकर दिल्ली आ जाते हैं कोचिंग लेने के लिए। पर जाहिर है कि सारे तो सफल हो ही नहीं सकते। इसलिए जो कामयाब नहीं होते वे कुँठा में जीने लगते हैं। उन्हें कोई सामान्य नौकरी करना अपनी शान के खिलाफ लगता है। बेहतर होगा कि हर इंसान अपनी क्षमताओं के अनुसार ही अपने कैरियर का रास्ता चुन ले। उस रास्ते को चुनने के बाद वह अपने को पूरी तरह से तैयार करे उस नौकरी के लिए जिसे वह पाना चाहता है। जाहिर है कि अगर इस तरह की सोच युवाओं में विकसित होगी तो देश से बेरोजगारी का मसला काफी हद तक हल हो जायेगा। देखिए बेरोजगारी एक बेहद गंभीर मसला है। इस पर सारे देश को मिलकर सोचना होगा। इस पर राजनीति करना किसी भी परिस्थिति में सही नहीं माना जा सकता है।(लेखक राज्य सभा सदस्य हैं)
*आर.के. सिन्हा,सी-1/22, हुमायूं रोड,नई दिल्ली
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