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कारूलाल जमडा की कविता- वह जो तुम चाहते हो


भाई !

मैने पहले भी कहा तुमसे,

कई बार।

(क्षमस्व में!)

सौंदर्य और श्रृंगार पर

नहीं लिख पाऊंगा, यार!

 

तुम कहते रहो बेशक

कि नहीं मुझे ज्ञान काव्य शास्त्र  का

नहीं मैं कवि छंदबद्ध,

हूँ नाम मात्र का।

 

सचमुच बहुत पढा़ कालिदास को।

 बहुत की चेष्टा, 

कि "कुमार संभव"से ही

 चुरा लाऊं उमा का सौंदर्य 

और सजा लूं अपनी कविता।

 

या फिर शेक्सपियर के

"रोमियो जुलियट"को

बलात् कर दूं समाहित

"मालविका" और "अग्निमित्र" की  

पवित्र कथा में।

 

 सुकुमार कवि पंत के प्रकृतितत्त्व में 

 या निराला की "वह तोड़ती पत्थर" में

 ढूंढता फिरूं संयोग श्रृंगार को,

 पर शायद यह बस में नहीं मेरे।

 

 है.... मेरे अभिज्ञान में है 

"दुष्यंत"और "शकुंतला"का विप्रलंभ,

 "ऋतुसंहारम्" से उद्घाटित

"विक्रम" और "उर्वशी" सा सौंदर्य बोध

 और "मेघदूत"सा प्रकृति प्रेम भी ।

 

 पर मित्र!

 अपने भीतर,

"आॅथेलो"की तरह उठते प्रश्नों का

 क्या करूं?

 

 क्या करूंं "कामायनी" की उन

 उठती तरंगों का,

 उस हलचल का

 जो लाती रहती है सदैव

 एक महाप्रलय,अंतःकरण में?

 

इसीलिए धधकती ही रहती है

"हेमलेट" और "मैकबेथ" सी

प्रतिशोधात्मक ज्वाला 

और सामने रह जाता है सिर्फ 

कबीर सा फक्कडी़ मिजाज

या फिर

नागार्जुनीय आक्रोश।

 

इसलिए जिसे कविता कह सको तुम!

वह छंद नहीं बन पाता है

और संपूर्ण कवित्त

सपाट पंक्तियों में सामने आ जाता है।

 


*कारूलाल जमडा,जावरा, जिला रतलाम ,मध्यप्रदेश

 

 

 









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