'चल खुसरो घर आपने' कहानी संग्रह डॉ महेंद्र अग्रवाल के कहानीकार की प्रथम प्रविष्टि के सत्य को समर्थित करता हुआ भी मेरा समीक्षक घूंघट में छुपे किसी प्रभावशाली सौंदर्य को बार बार देखने की ज़िद्दी चाव को रोक नहीं सका। इस संग्रह की प्रत्येक कहानी में आधुनिक जीवन के विविध रूपों में प्रकट घटनाएं हमारे आस पास से गुज़रती हुई प्रतीत होती हैं। हमारे कहानीकार ने जिस जीवन को जिया है,देखा परखा है,उसका प्रत्यक्ष रूप इस कहानी संग्रह की प्रत्येक कहानी में परिलक्षित होता है।
प्रत्येक कहानी वर्तमान जीवन की अनुभवहीनता ,कामुकता, दीनता ,निर्ममता ,शोषण ,अनुशासनहीनता, प्रशासनिक दंभ, एवं उदण्डता का खुला दस्तावेज है .इनकी भाषायी अभिव्यक्ति अपने आवेग में शब्दानुशासन की प्रतिबद्धता को नहीं स्वीकारती बल्कि उर्दू ,अंग्रेजी ,संस्कृत और जनसामान्य के बोलचाल के सार्थक और निरर्थक शब्दों के मेलजोल से कहानीकार की सहजता और व्याप्ति का परिचय देती है। यह आज की बनावटी सभ्यता की कुरूपता को आईना दिखाती है ताकि वह संवर जाए, सुधर जाए। अज्ञान और असंयम को लेकर बहकते नौजवानों को मार्गदर्शन देती दो कहानियां -'चल खुसरो घर आपने' और 'दोस्ती में' प्रबल प्रकाश स्तंभ सिद्ध होती हैं तो 'कॉलेज में एक दिन' कहानी शिक्षण संस्थानों में होने वाले भ्रष्टाचार का खुला प्रदर्शन ,चरित्रहीन अध्यापकों और अनुशासनहीन छात्रों की गतिविधियों का यथार्थ,निर्भीक एवं स्पष्ट वर्णन है। कहानी संग्रह की 'महफिल' और 'दुर्घटना का दंश' ये दो हृदय विदारक, मर्मस्पर्शी कहानियां, कहानीकार के करुणा विगलित हृदय का यथार्थ बोध देकर उस निर्ममता की भी व्यापक जानकारी देती है जो कहीं समाज के बेरहम लोगों के द्वारा जनहित को समर्पित किसी व्यक्ति को अपरिचित रखती व्यंग्य बौछार तो देती ही है साथ ही एसपी साहब के गुरगों द्वारा डंडों की करारी प्रहार भी। वह अपने पेट की आग बुझाने के लिए महफिल लगाकर कभी ग़ज़ल सुनाता है तो कभी अमिताभ बच्चन और अमजद खान के डायलॉग। किंतु अंत तक अपने जीवन को अपरिचय का विषय बना कर किसी ट्रक दुर्घटना का शिकार बन समाज की निर्मम लोगों के शोषण की वृत्ति की पोल खोल देता है। कहानीकार की चुभती व्यंग्योक्ति ,अपनी करुणा के सहज उद्रेक में उच्छवसित और आक्रोश में प्रहारी रूप का तेवर लिए फूट पड़ती है । कहानीकार के मर्मस्पर्शी रूप की झांकी महफिल कहानी के शीर्षक को समन्वित कर आज की भीड़ में एक अदद व्यक्ति को तलाशती अपनी शून्य उपलब्धि पर तरस खाती इन अभिव्यक्तियों की संवेदना में किसी भी सहृदयी को झकझोर देने वाली है-
1-''यह शख़्स लोगों के लिए कितना महत्वपूर्ण है ,फिर भी लोग इसे पागल कहते हैं। दरअसल पागल सिर्फ वह व्यक्ति ही नहीं होता जो पत्थर फेंकता है .बल्कि वह हर व्यक्ति पागल है जो सामान्य रीतिरिवाज़ों के ख़िलाफ़ कार्य करता है। उन रीतिरिवाज़ों के ख़िलाफ़, जिन्हें समाज या जनसामान्य द्वारा मान्यता मिल चुकी है।
2- ''मरने पर भी वह दूसरों के लाभ का कारण बना। वही हुआ जो अक्सर होता है। नगरपालिका के कर्मचारियों ने दो क्विंटल लकड़ी के पैसे बचाते हुए दो क्विंटल में उसकी अंत्येष्टि भी कर दी। वह जब तक था लोग उसका मज़ा लेते थे। मगर अब.....कोई नामलेवा भी नहीं है।''
इसी प्रकार 'दुर्घटना का दंश' कहानी कहानीकार के करुणा विगलित अंतःकरण के दर्पण के मानिंद है जो भुट्टे बेचने वाले की अनुपस्थिति के कारण की खोज में एड़ी चोटी का पसीना एक करता है। जो समाज और राजनीति से निरंतर उपेक्षित, कीचड़ और गंदगी में जीवन जीने व परिवार पालने के साथ उस घर में रहता है और एक टांग गंवाने के वावजूद अपनी जवान बहिन से काम कराने को तैयार नहीं है। दुर्घटना के फलस्वरुप इलाज के लिए मिले दस हजार से वह अपनी बहिन के विवाह के सपने संजोता है। मूल्यहीन लोगों की बनावटी सभ्यता मूल्यों से जुड़े कहानीकार के सामने यक्ष प्रश्न पैदा करती है। कहानीकार की इन मार्मिक अभिव्यक्तियों को देखिये-
1-''पिछले तीन सालों से मैं उसे लगातार देख रहा था लेकिन मेरा देखना केन्द्र या राज्य सरकार जैसा नहीं था जिसे उसका उपयोग केवल आंकड़ों में करना हो।''
2-“उसके होठों से कुछ शब्द फूट रहे थे मैंने कान लगाकर सुनने का प्रयास किया। वह मुझसे उसी एक्सीडेंट की चर्चा कर रहा था। बड़ा भला आदमी था साहब, उसकी जगह और कोई होता तो गाड़ी भगाकर ले जाता, लेकिन वह रुका, अपनी गाड़ी से दवाखाने ले गया, दवा दारू भी बहुत कराई उसने। चार दिन तक देखने आता रहा। हम पर क्या रखा है बाबूजी,दवा तक के पैसे नहीं थे। वो तो भला हो उसका, पूरे दस हजार दे गया है। मुन्नी की शादी की चिन्ता दूर हो गई। बोलते बोलते गला भर गया उसका। आंखों में आंसू उतर आये।
इस संग्रह की 'थूकने लायक' कहानी भी कुछ कम मर्मस्पर्शी नहीं है। इसमें शोषक समाज के तथाकथित सभ्यता के आंचल में प्रच्छन्न नृशंस मानवता के अभिशाप उन नर भेड़ियों का रूप उजागर किया गया है जो दीनता के दामन में सिसकते उसके सौंदर्य पर दांत गड़ाते उसे बार-बार यौन शोषण का विषय बनाते हैं और वह अपने दामन को बार-बार दागदार बनाने को विवश है क्योंकि उसे अपने शराबी पति और अपने मासूम बच्चे का भरण पोषण करना है। उसे समाज के इस घृणित परिवेश में घूमने लायक जमीन भी नहीं दिखाई देती क्योंकि जहां उसकी दृष्टि जाती है वहीं उन नर भेड़ियों की व्याप्ति है।कहीं अपनी साहबी ठाट के रूप में तो कहीं पुलिसिया धाक से उस पर अपना रुतबा जमाते। आज झूठ मूठ की सभ्यता के आवरण में दीनता की विवशता भोगती नारी के आंसू पौरुषेये परिवेश की निर्ममता की बंद कोठरी को सराबोर करते हुए भी गुमसुम बने हुए हैं, जिनका एहसास हमारे कहानीकार को वेदना संकुल करता हुआ । सिसकियां लेने को मजबूर करता है। इसकी पुष्टि के लिए कहानीकार के मर्मस्पर्शी व्यंग्योक्ति का अंदाज देखें - ''उसे (उस दैन्य से अभिशप्त युवती को )फिर काम पर जाना होगा। भीख मांगने का काम करने ताकि उसके खसम का विधि -विधान से दाह संस्कार हो सके और उसकी आत्मा भटके नहीं .....जब वह पूरी बात बताएगी तो पसीजेगा क्यों नहीं? आखिर वह भी तो इंसान है? और फिर कल रात ही तो उसने मालकिन की जगह एवजी मिल्कियत उसे सौंपी थी। सोचते-सोचते मुंह कसैला हो आया। वह थूकना चाहती थी। हमेशा की तरह थूक निगलना नहीं, मगर मजबूरी थी कि इस सभ्य संसार में आसपास कहीं भी न थूकने लायक जगह थी और न थूकने की इज़ाजत''
इस प्रकार से इस कहानी संग्रह की सभी कहानियां मुझे अपने शीर्षक, कथावस्तु ,चरित्र ,संवाद योजना ,भाषा शैली ,अभिव्यक्ति और उद्देश्य को लेकर बोलती सी हैं क्योंकि इन कहानियों में अंतर्निहित पात्रों और घटनाओं की अनुभूतियों में कहानीकार ने स्वयं को उतारा है। जब किसी साहित्यकार का व्यक्तित्व, उसकी रचना में स्वयं समाविष्ट होकर अपने संवेदनशील ,भावुकता के करुणा विगलित हृदय और जीवन जीने के विभिन्न रूपों में अपनी प्रविष्टि पर स्वयं मुहर लगाने का आत्मविश्वास लिए हो वह रचना और उसके रचनाकार का परिचय किसी के मुहताज नहीं होते। इसलिए इस कहानी संग्रह की सभी कहानियां अपने आप में कुंदन हैं,उन्हें तपाकर किसी निकष पर कसकर अभिप्रमाणित करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
चल खुसरो घर आपने
डॉ.महेन्द्र अग्रवाल
नई ग़ज़ल प्रकाशन शिवपुरी
*धर्मनाथ प्रसाद -4207, माधुरी भवन पुराना रामनगर झांसी रोड उरई जालौन उ.प्र.
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