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हिंसा से बढ़ता सामाजिक अलगाव एवं अकेलापन


*ललित गर्ग*
आज देश ही नहीं, दुनिया में हिंसा, युद्ध एवं आक्रामकता का बोलबाला है। जब इस तरह की अमानवीय एवं क्रूर स्थितियां समग्रता से होती है तो उसका समाधान भी समग्रता से ही खोजना पड़ता है। हिंसक परिस्थितियां एवं मानसिकताएं जब प्रबल हैं तो अहिंसा का मूल्य स्वयं बढ़ जाता है। हिंसा किसी भी तरह की हो, अच्छी नहीं होती। मगर हैरानी की बात ये हंै कि आज हिंसा के कारण लोग सामाजिक अलगाव एवं अकेलेपन का शिकार हो रहे हैं। शिकागो विश्वविद्यालय के द्वारा हाल ही में किये गये अध्ययन में भी यह बात सामने आई है। यह अध्ययन शिकागो के ऐसे 500 वयस्क लोगों के सर्वे पर आधारित है जो हिंसक अपराध के उच्च स्तर वाली जगह पर रहते हैं। तथ्य सामने आया कि हिंसा का बढ़ता प्रभाव मानवीय चेतना से खिलवाड़ करता है और व्यक्ति स्वयं को निरीह अनुभव करता है। इन स्थितियों में संवेदनहीनता बढ़ जाती है और जिन्दगी सिसकती हुई प्रतीत होती है।  
शिकागो विश्वविद्यालय के मेडिसिन के सामाजिक महामारी विशेषज्ञ एलिजाबेथ एल तुंग का कहना है कि हिंसा व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर डालती है। शहरी वयस्कों में हिंसा की वजह से सामाजिक अलगाव और अकेलापन पाया गया। अकेलापन कुछ सीमित शारीरिक गतिविधियों से जुड़ा है, जैसे सही तरह से दवाएं न लेना, खानपान, धूम्रपान व मदिरापान आदि। व्यक्ति अपने ही समुदाय में जितनी अधिक हिंसा का शिकार होता है, अकेलापन उसे उतना ही ज्यादा घेर लेता है। सबसे ज्यादा अकेलापन उन लोगों में पाया गया जो सामुदायिक हिंसा का शिकार हुए। पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्ड में वह पॉजिटिव आए। एलिजाबेथ एल तुंग का कहना है कि अध्ययन के नतीजे उन वृद्ध लोगों के लिए विशेष रूप से परेशान करने वाले हैं, जो हिंसात्मक पड़ोस में रहते हैं। उनमें अकेलेपन की अधिक संभावना होती है और वे तनाव से जुड़ी बीमारियों से अधिक ग्रस्त हो जातेे हैं। अकेलापन एक बढ़ती गंभीर स्वास्थ्य समस्या है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि अमेरिका में यह मृत्यु दर में इजाफे का बड़ा कारण बन सकता है। अध्ययन में हिस्सा लेने वाले 77 प्रतिशत लोग 50 से अधिक उम्र के थे।
एक शोधकर्ता ने कहा, सामाजिक अलगाव और अकेलेपन से जूझ रहे व्यक्ति को हृदयरोग का खतरा सबसे ज्यादा होता है। ठीक उस तरह जिस तरह धूम्रपान करने वाले को होता है। कहा जा सकता है कि अकेलापन धूम्रपान के बराबर घातक है। बढ़ती हिंसक मानसिकता एवं परिस्थितियों के बीच न जिन्दगी सुरक्षित रही, न इंसान का स्वास्थ्य और न जीवन-मूल्यों की विरासत।
अहिंसा की प्रासंगिकता के बीच हिंसा के तरह-तरह के पौधे उग आये हैं। हिंसक विकृतियां एक महामारी है, उसे नकारा नहीं जा सकता। अहिंसक मूल्यों के आधार पर ही मनुष्य उच्चता का अनुभव कर सकता है और मानवीय प्रकाश पा सकता है। क्योंकि अहिंसा का प्रकाश सार्वकालिक, सार्वदेशिक और सार्वजनिक है। इस प्रकाश का जितना व्यापकता से विस्तार होगा, मानव समाज का उतना ही भला होगा, वह सुरक्षित महसूस करेगा एवं जिन्दगी के प्रति धन्यता का अनुभव करेगा। इसके लिये तात्कालिक और बहुकालिक योजनाओं का निर्माण कर उसकी क्रियान्विति से प्रतिबद्ध रहना जरूरी है। क्योंकि देश एवं दुनिया में सब वर्गों के लोग हिंसा से संत्रस्त हैं। कोई भी संत्रास स्थायी नहीं होता, यदि उसे निरस्त करने का उपक्रम चालू रहता है। हिंसक लोगों एवं परिस्थितियों के बीच रहकर जो हिंसा के प्रभाव को निस्तेज कर दें,  वही शासन व्यवस्था एवं व्यक्ति की जीवनशैली अपेक्षित है। जो हिंसक परिस्थितियां एवं विवशताएं व्यक्ति की चेतना को तोड़ती एवं बिखेरती है, उन त्रासद स्थितियों से मनुष्य को अनाहत करना एवं बचाना वर्तमान की सबसे बड़ी चुनौती है। 'अहिंसा सव्व भूय खेमंकरी'-अहिंसा सब प्राणियों के लिए क्षेमंकर है, आरोग्यदायिनी और संरक्षक-संपोषक है। भारत में होने वाले अहिंसक प्रयोगों से सम्पूर्ण मानवता आप्लावित होती रही है और अब उन प्रयोगों की अधिक प्रासंगिकता है। तथागत बुद्ध द्वारा प्रतिपादित अहिंसा का सार है करुणा। गीता के अहिंसा सिद्धांत की फलश्रुति है अनासक्ति। ईसामसीह ने जिस विचार को प्रतिष्ठित किया, वह है प्रेम और मैत्री। इसी प्रकार मुहम्मद साहब के उपदेशों का सार है भाईचारा।
भगवान महावीर ने संयम प्रधान जीवनशैली के विकास हेतु व्रती-समाज का निर्माण किया। उस व्रती समाज ने अनावश्यक और आक्रामक हिंसा का बहिष्कार किया। बुद्ध की करुणा के आधार पर सामाजिक विषमता का उन्मूलन हुआ। जातिवाद की दीवारें भरभरा कर ढह पड़ी। गीता के अनासक्त योग ने निष्काम कर्म की अभिप्रेरणा दी। इसमें आचार-विचारगत पवित्रता की मूल्य-प्रतिष्ठा हुई। ईसा मसीह के प्रेम से आप्लावित सेवा भावना ने मानवीय संबंधों को प्रगाढ़ता प्रदान की। मुहम्मद साहब के भाईचारे ने संगठन को मजबूती दी। संगठित समाज शक्ति संपन्न होता है। महात्मा गांधी ने राजनीति के मंच से अहिंसा की एक ऐसी गूंज पैदा की थी कि अहिंसा की शक्तिशाली ध्वनि तरंगों ने विदेशी शासन और सत्ता के आसन को अपदस्थ कर दिया। उन्होंने सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा आंदोलन, स्वदेशी आंदोलन आदि अनेक रूपों में अहिंसा के प्रयोग किए। सशक्त प्रस्तुति एवं अभिव्यक्ति द्वारा विश्व मानव को अहिंसा की शक्ति से परिचित कराया। इंसान की मनःस्थिति को स्वस्थ बनाने के लिये आज अहिंसक जीवनशैली को प्रतिष्ठापित करना जरूरी है।
वर्तमान के संदर्भ में देखा जाए तो लगता है, महापुरुषों के स्वर कहीं शून्य में खो गए हैं। जीवन के श्रेष्ठ मूल्य व्यवहार के धरातल पर अर्थहीन से हो रहे हैं। तभी विश्व मानव में सामाजिक अलगाव एवं अकेलेपन की त्रासद स्थितियां देखने को मिल रही है। विश्व अणु-परमाणु हथियारों के ढेर पर खड़ा है। दुनिया हिंसा की लपटों से झुलस रही है। अर्थ प्रधान दृष्टिकोण, सुविधावादी मनोवृत्ति, उपभोक्ता संस्कृति, सांप्रदायिक कट्टरता, जातीय विद्वेष आदि हथियारों ने मानवता की काया में न जाने कितने गहरे घाव दिये हैं। क्रूरता के बीज, सामाजिक अलगाव एवं अकेलेपन के दंश इंसान के जीने पर ही प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं।
महान् दार्शनिक आचार्य श्री महाप्रज्ञ कहते हैं-बढ़ती हुई क्रूरता, हिंसा और अपराधों का कारण है अहिंसा, मैत्री, करुणा, सौहार्द, सद्भावना आदि जीवन-मूल्यों के प्रशिक्षण का अभाव। आज हिंसा के प्रशिक्षण की व्यापक व्यवस्थाएं हैं। वे चाहें सैनिक/सामरिक प्रतिष्ठानों के रूप में हो या आतंकवाद के प्रशिक्षण के रूप में। हिंसक शक्तियां संगठित होकर नेटवर्क के लक्ष्य से सक्रिय हैं। अहिंसक शक्तियां न संगठित हैं, न सक्रिय। यह सर्वाधिक चिंतनीय पक्ष है। ताजा अध्ययन के सन्दर्भ में व्यक्ति की जीवनशैली को उन्नत बनाने, आदर्श एवं शांत जीवन पद्धति को निरूपित करने के लिये अहिंसा को व्यापक बनाने एवं संगठित करने की जरूरत है। जिस व्यक्ति के अंतःकरण में अहिंसा की प्रतिष्ठा होती है, उसकी सन्निधि में शत्रु भी शत्रुता त्याग देता है और परममित्र बन जाता है। अपेक्षा है, प्रत्येक व्यक्ति अपने चित्त को मैत्री की भावना, सह-जीवन एवं संवेदनशीलता से भावित करे। इनकी शक्तिशाली तरंगे हिंसक, अपराधी और आतंकवादी लोगों की दुर्भावनाओं को भी प्रक्षालित कर सकती है। वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में धर्म के प्रवक्ताओं, विचारकों एवं धर्म के नेताओं का विशेष दायित्व है कि वे अपने अनुयायियों में अहिंसक मानसिकता, सहिष्णुता तथा सद्भावना के संस्कार पुष्ट करें। उनमें धार्मिक विद्वेष व घृणा के भाव न पनपने पाये। अपनी-अपनी मान्यताओं, परंपराओं तथा पूजा-उपासना की विधियों का सम्मान व पालन करते हुए भी वे आपसी सौहार्द और भाईचारे को बनाए रखें। इसी में सबका सुख, सबका हित निहित है। इसी से व्यक्ति का अकेलापन दूर हो सकता है। अहिंसा का शाश्वत मूल्य वर्तमान में टीसती हुई मानवता और कराहती मानव-जाति को त्राण दे सकता है। 



*ललित गर्ग,ई-253, सरस्वती कुंज अपार्टमेंट,25 आई. पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-मो.9811051133


 

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