*अखिलेश सिंह श्रीवास्तव 'दादू'*
“मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती भगवान् भारत वर्ष में गूँजे हमारी भारती” मैथली शरण गुप्त की इन अमर पंक्तियों में उल्लेखित भारती का आशय भारतीय शुचिता, राष्ट्रीय गरिमा के साथ हर भारतीय की देश प्रेम की भावना का बोध है| इसी भावना की जाग्रत मूरत एक ऐसी भारतीय नारी की दास्ताँ आपके समक्ष है जिसका जीवन-पथ, राष्ट्र-पथ पर समर्पित रहा| इंटरनैट,पत्र-पत्रिकाओं, लोकवाणी से प्राप्त जानकारी के आधार पर आपको कथालेख सुनाता हूँ उस वीरांगना की जिसका स्थान रानी लक्ष्मी बाई, बेग़म हज़रत महल, सरोजनी नाइडू के समतुल्य है| जिसका स्थान महाभारत रण क्षेत्र में श्री कृष्ण जैसा है; जिसकी ओजपूर्ण वाणी-से राष्ट्रीय भावना की अलख जल उठती; भारतीय स्वराज्य की लड़ाई की वो ज्योति जो क्रांतिकारियों की आधारशिला बनी; जिनके प्रयास स्वर्ण अक्षरों-से लिखे जाएंगे| 'दुर्गावती देवी जिसे इतिहास ने दुर्गा भाभी के नाम से जाना|'
इलाहबाद न्यायलय में नाज़िर के पद पर कार्यरत पांडित बाँके बिहारी, सात अक्टूबर उन्नीस सौ सात को अपने सारे ज़रूरी काम-क़ाज़ निपटा, अपनी प्रिय पत्नी की स्वास्थ संबंधी चिंता में बैठे थे तभी एक सूचना उनके श्रवणरंध्रों में प्रवेश कर ह्रदय को आनंदित कर गई| छोटी सी सुन्दर बालिका ने अपने नन्हे-नन्हे पाँवों से उनकी छाती में धौल लगा कर पिता होने के सर्व सुखद भाव से परिचित कराया| कन्या के दादा शिवशंकर अपनी ज़मीदारी का कार्य छोड़ उसी के आगे-पीछे खेलते अपने बचपन में लौट जाते| इस कन्या का नाम दुर्गावती देवी रखा गया| माता-पिता की एकलोती बेटी के जीवन में इतनी नन्ही उम्र में ही नियती ने बड़ा दुःख लिख दिया| दुर्गा की माता जी का अल्पावधी में ही निधन हो गया| पिता ने उसे संभाला पर विरक्ती भावों के चलते उन्होंने संन्यास ले लिया| अब वृद्ध दादा ने ही दुर्गा की सभी इच्छाओं को पूरा करना अपने जीवन का लक्ष्य बनाया एक नातेदार ने दुर्गा की देख-भाल में बहुत योगदान दिया|
कक्षा तीन तक पढाई करने के बाद, तत्कालीन सामजिक व्यवस्थाओं के अनुरूप, दस वार्ष की आयु में दुर्गा का विवाह लाहौर में रेल्वे के बड़े अधिकारी रायसाहब शिवचरण वोहरा के पंद्रह वर्षीय पुत्र भगवती शरण वोहरा से हो गया| भगवती भी उस समय रेल्वे के लिए कार्य करते थे| भागती के मन में अंग्रेज़ो द्वारा किये जा रहे ज़ुल्मोसितम को देख विद्रोह की भावना धधक उठी, परिणामतः उसने स्वराज्य प्राप्ती पथ में चलना तय किया| नवविवाहित किशोर मन दुविधा में था कि कैसे जीवन संगनी को समझाऊँ पर स्थिति बिल्कुल विपरीत रही| दुर्गा ने सहर्ष, साभिमान अपनी स्वीकृति दे दी| ये सुन्दर मणीकांचन संयोग ही तो था कि दोनों के मध्य राष्ट्र प्रेम की सामान धरा प्रवाहित थी| इतिहास कुछ नया लिखने की तैयारी में था| उन्नीस सौ बीस के दशक में युवा भगवती पूरी तरह से स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े| भगवती का मानना था कि, स्व-स्त्याग्रह की सफलता के लिए अन्य सत्याग्रहों का अध्ययन-मनन-चिंतन आवश्यक है अतः उन्होंने शिवराम हरी राजगुरु, सुखदेव थापर, भगत सिंह और अन्य साथियों के साथ मिल 'स्टडी सर्किल' की स्थापना की| शीघ्र ही 'नौजवान भारत सभा' का भी गठन किया जिसका मुख्य उद्देश्य समाज में व्याप्त कुरीतियों के विरोध में आवाज़ उठाना और स्वतंत्रता के प्रति जाग्रति था| अब भगवती ने दूर्गा को भी विधिवत अपनी सभा से जोड़ते हुए, सभी से ये आपकी भाभी हैं कह के परिचय कराया| तबसे दुर्गावती दुर्गा भाभी के नाम से जानी जाने लगीं| दुर्गा के स्नेही व्यवहार के कारण सभी उनका बहुत सम्मान और विश्वास करते|
दुर्गा इस समय लाहौर में पढ़ातीं थीं| उनकी उत्प्रेरक वाणी-से कई लोग उनके साथ स्वराज्य-पथ के पथिक बने| सरल स्वभाव के कारण सभी क्रन्तिकारी उनसे निःसंकोच मिलते| कालांतर में आप चन्द्र शेखर आज़ाद की हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसिएशन की सदस्या बनीं और शीघ्र ही प्रमुख योजनाकार और सलाहकार के रूप में सामने आईं| सभाओं में दुर्गा उद्बोधन के बाद व्योम-विदारक जयनाद गूँज उठाते, लोगों में मातृभूमी के प्रति अलग ही ज्योत प्रज्जवलित हो जाती| सुआस, प्रयत्न, धैर्य, निडरता, आव्हान, जागरण, आत्मोत्कर्ष दुर्गा भाभी के व्यक्तिव्य और कृतित्व का हिस्सा थे| भाभी की राष्ट्र-प्रथम अवधारणा अब जन-वाणी थी| क्रांतिकारी योजनाओं पर काम करते-करते उन्होंने कानपुर और लाहौर में पिस्तौल संचालन सीखा| अब उनके द्वारा जोखिम भरी वो सेवा शुरू की गई जिसने क्रांती की गतिविधियों को तीज़ी के साथ नई दिशा दी| दुर्गा भाभी राजस्थान से पोस्तोल्लें बुलवाकर यहाँ क्रांतिकारियों को उपब्ध करवातीं| जनविश्वास है, आज़ाद की जिस माऊज़र पिस्तौल के नाम से दुष्ट अँगरेज़ घबराते थे वे भाभी द्वारा ही उन्हें दी गई थी| आज़ाद अपनी माऊज़र हाथ में ले कहते, “दुश्मन की गोलियों से कभी भी न डरेंगे हम, आज़ाद रहे हैं आज़ाद रहेंगे हम|”
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इधर भगवती नें लाहौर में किराए के एक मकान में बम बनान शुरू किया| चन्द्र शेखर आज़ाद के कहने पर इन्होने 'फिलोसफ़ी ऑफ़ बम' दस्तावेज़ तैयार किया| दुर्गा का इस कार्य में परोक्ष योगदान रहा| वे क्रांतिकारियों के लिए चंदा इकठ्ठा करतीं और उनके गुप्त पत्रों को भी गंतव्य तक पंहुचतीं| इन्ही गतिविधियों के मध्य दुर्गा और भगवती के जीवन में वह सुन्दर क्षण आया जब वे माता-पिता बने| उन्नीस सौ अट्ठाईस में उन्हें एक पुत्र प्राप्ती हूई जिसका नाम सचिंद्र रखा गया| सचिंद्र की देख-भाल के लिए दुर्गा भाभी ने क्रांतिकारी गतिविधियों को थोडा कम कर दिया और माँ-धर्म पालन में व्यस्त हो गईं| एक दोपहर सूचना आई कि अंग्रेज़ो ने भगवती के कारखाने में छापा मारा है अतः सभी सम्बंधित क्रन्तिकारि छिप कर रहने लगे| इन विषम परिस्थितियों में दुर्गा भाभी ने कमान संभाली| बरतानिया सरकार के क्रूर नियंत्रण के चलते कुछ समय के लिए सभी गतिविधियों पर विराम लग गया| ये घड़ियाँ दुर्गा की परीक्षा की घड़ियाँ थीं उसे पुत्र पालन के साथ-साथ संगठन संरक्षण भी देखना था तिस पर भगवती जो उसकी आतंरिक शक्ति थे वे भी अज्ञात वास में थे|
राष्ट्र अराधना के महायज्ञ में प्राणाहुति देने को तैयार समर मतवालों को अंग्रेज़ी सरकार कैसे रोक सकती थी...? उधर उन्नीस सौ सत्ताईस में लाला लाजपत राय के एक कार्यक्रम में जौन सेंडर्स ने नृशंस लाठीचार्ज के आदेश दिए, जिससे घायल हो, लालाजी वीरगति को प्राप्त हो गए|
सेंडर्स को दण्डित करने के लिए दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठाईस में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने उसे गोली मार, लाला लाजपत राय की शहादत का बदला लिया| इस समय भगवती दिल्ली दौरे में थे जबकी दुर्गा भाभी गृह कार्यों में व्यस्त| साँझ, तीनों दुर्गा भाभी के समक्ष मदद की आशा-से ससंकोच मिले और एक योजना बताई| भाभी के उत्तर ने न केवल तीनों का संकोच ख़त्म किया बल्की उनके मन में दुर्गा भाभी के प्रति सम्मान को और मज़बूत कर दिया| दुर्गा ने साफ़ कह दिया कि वो एक क्रांतीकारी की पत्नी ही नहीं स्वयं भी क्रांतीकारी हैं, इसीलिए निःसंकोच योजना पर काम होगा| साथ ही उन्होंने उनके पति द्वारा आड़े वक्त के लिए दिए पैसों में से पाँच सौ रुपये भी दिए जो उस समय के हिसाब से अच्छी रक़म थी| उस समय का सामाजिक परिवेश ऐसा था कि एक विवाहिता का किसी और की पत्नी का नाटक करना भी भाँती-भाँती के प्रश्नचिह्न लगा सकता था| इन सब स्थितियों को समझते हुए भी दुर्गा ने राष्ट्र-पथ में सर्वस्व न्योछावर करने का प्रण ले लिया; हर हाल में इन क्रांती वीरों को बचाना ज़रूरी समझा; वो निश्चिंत थीं क्यों कि उनके साथ उनके जीवन साथी का प्यार और विश्वास जो था|
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कोट-पैंट-हैट लगाए एक बाबू अपने सेवक के साथ दुर्गा भाभी के घर का किवाड़ खट-खटाता है| भाभी उसे देख मुस्कुरा देतीं हैं| बिना दाढ़ी के भगत सिंह अंग्रेज़ बाबू जो लग रहे थे| अपने छोटे से बेटे को गोद में लिए दुर्गा भाभी पूरी साज-सज्जा के साथ भागत की पत्नी के रूप में और राजगुरु सामान उठाए सेवक के रूप में लम्पट अंग्रेजों को सामने से चकमा दे कर कलकत्ता ट्रेन से निकल गए| इस विषय में जब वोहरा जी को पता चला तो उनका मस्तक सगर्व ऊंचा हो गया| वाह! भारतीय इतिहास में ये अपने आप में अनूठा ही उद्धरण है| सच है! रूढ़ीवादी एकांगी दृष्टि-से परे जा कर ही ऐतिहासिक कार्य पूर्ण होते हैं| दुर्गा भाभी के इस प्रताप प्रकाशित कार्य से उन्हें हिमतुल्य राष्ट्रीय ऊँचाई मिली| मैं तो यह कहूँगा इंक़लाब ज़िंदाबाद और मेरा रंग दे बसंती चोला को दुर्गा शक्ति प्राप्त हो गई| इसी कड़ी में आठ अप्रैल उन्नीस सौ उन्नतीस को पुनः भाग सिंह-राजगुरु-सुखदेव ने अलीपुर रोड दिल्ली स्थित तत्कालीन असैम्बली में बम फोड़ा, पर्चे फेंके और इंक़लाब ज़िंदाबाद के नारे लगाए| इनको तुरंत गिरिफ़्तार कर लिया गया| दुर्गा भाभी ने इनके बचाव में फ़ोटो सहित मार्च निकाले, सभाएँ कर जनमत संग्रह किया, महात्मा गांधी को भी पत्र लिखा, केस लड़ने के लिए अपने गहने तक बेंच दिए पर सफलता नहीं मिली| अन्याई, अत्याचारी फ़िरंगी तो विदेशी थे पर दुःख इस बात का था जो स्वदेशी थे वे भी जाने क्यों मौन थे! दूसरी और पता चला त्रेसठ दिनों से जेल में ही भूख हड़ताल पर बैठे जितेंद्र नाथ दास भी जेल में शहीद हो गए| इस वीरांगना के ही प्रयास थे कि उनका अंतिम संस्कार लाहौर में संभव हो पाया|
दुर्गा के प्राण, भगवती बाबू इस समय भगत सिंह और साथियों को जेल से छुडाने की दूसरी योजना के क्रियान्वयन हेतु बम निर्माण में व्यस्त थे| ज़रा सोचें, कैसे ये दंपति अपने बालक का लालन-पालन कर पाते होंगे! वे साथ रह के भी दूर थे| ओह! दुर्भाग्य का वो दिन भी आ गया जब भगवती अपनी दुर्गा को छोड़ सदैव के लिए चले गए| रावी तट पर एक बम, परीक्षण के दौरान फट गया जिसमे भगवती जी शहीद हो गए| यह विस्फ़ोट दुर्गा के जीवन में हुआ था!
“प्राण, प्राण दे चले गए, अब श्रृंगार कहाँ था!
जीवन के लंबे पथ पर, गहन तिमिर खड़ा था|
किस्से बोलूँ, कैसे बोलूँ, अब कौन मुझे सुनेगा!
तन मेरा बस मेरा है, पर मन सती रूप धरेगा|”
उसके समक्ष पति द्वारा दिखाई मंज़िल थी और गोद में उनकी निशानी| वह संभली, उठी और फ़िर खड़ी हो गई अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए|
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रक्ष संस्कृति का संस्थापक था रावण (लेख)
दक्षिण बंबई की लैमिंगटन रोड, नौ अक्टूबर उन्नीस सौ तीस के दिन कुछ विशेष थी क्यों कि आज यहाँ गवर्नर हेली जो आ रहा था| तभी, धांय-धांय...! गोली चलाती है और सर्वस्व अफ़रा-तफ़री मच जाती है| यूँ तो इस गोली का लक्ष्य हेली था पर बीच में उसका सहायक टेलर आ गया जो उसके जैसा ही धूर्त था| यह गोली दुर्गावती द्वारा चलाई गई थी| संभवतः अठारह सौ संतावन के बाद यह प्रथम अवसर था जब किसी भारतीय नारी ने सीधा अंग्रेज़ों पर हमला किया था| परिणाम पूर्व निर्धारित था, दुर्गा भाभी को उनके साथी यशपाल सहित तीन वर्षों की जेल हो गई|
पुनः वही स्थिति निर्मित हूई-
“दुःख विषाद नहीं आया कोई, इस सिंहनी को बचाने|
बन के बैठे थे जो भुवन में, देश के ताने-बाने|”
जेल से रिहाई के बाद भी दुर्गा भाभी अंग्रेज़ों द्वारा किसी न किसी रूप-से प्रताड़ित की जाती रहीं और अंततः उन्नीस सौ पैंतीस में वे गाज़ियाबाद आ गईं और प्यारेलाल कन्या विद्यालय में (संभवतः यही नाम था) में अध्यापिका हो गईं| लक्ष्य आज भी वही था, स्वतंत्रता के लिए जनमत को स्वराज्य आन्दोलन के लिए ध्रुवीकृत करना| उन्नीस सौ सैंतीस में तत्कालीन राष्ट्रीय कांग्रेस की प्रदेश कमेटी की अध्यक्ष मनोनीत की गईं| उन्होंने महसूस किया कि शिक्षा के माध्यम में सुधार कर हम आने वाली पीढ़ी को आज़ादी के लिए और मज़बूत कर सकते हैं, अतः राष्ट्रीय चरित्र निर्माण को नई दिशा देने की सुअभिलाषा के साथ, उन्होंने उन्नीस सौ उन्न्चालीस में मद्रास की मारिया मोंटेसरी से प्रशिक्षण प्राप्त कर, उन्नीस सौ चालीस में लखनऊ में मात्र पाँच साधारण परिस्थिति के बच्चों को दाख़िला दे, एक मोंटेसरी सकूल की स्थापना की| पूर्ण संभावित है कि ये उत्तर भारत का प्रथम मोंटेसरी स्कूल था| आज भी यह सिटी मोंटेसरी इंटर कॉलेज के नाम से जाना जाता है| बड़ी सादगी के साथ दुर्गा भाभी ने एक कक्षीय निवास से ही इस संस्थान का संचालन किया| स्वतंत्रता उपरांत उन्हें स्वतंत्रता सैनानियों की समाधी में स्मृति कार्यक्रमों में बुलाया जाता तो वे समाधी में चढाने के लिए पुष्प स्वयं के पैसों से ही खरीदतीं| उनके सम्मान में उन्हें धन राशी भी दी गई पर उन्होंने वह राशी सैनिकों के कल्याण के लिए सरकार को वापस कर दी| दुर्गा भाभी के पास सहायता के प्रस्ताव भी आते तो वो उन्हें सधन्यवाद लौटा देतीं| इन सब घटनाओं से मुझे ऐसा लगता है, जो महिला सुख, वैभव, संपन्नता का त्याग कर अपने पति के साथ स्वराज्य प्राप्ती के कंटक भरे मार्ग पर चली हो क्या वो ये भौतिक सम्मान स्वीकार करतीं...? क्या वे कोइ पद की अभिलाषा रखतीं...? कदापि नहीं| यह भूल थी| ऐसी त्याग और बलिदान की मूर्ती को राष्ट्रीय प्यार, स्नेह और अपने पन की अवश्यकता थी| खैर छोड़ें इन बातों को, तकलीफ़ ही होगी!
समय अंतिम विदा का था| स्वर्ग-से देवगण स्वयं इस भारत-पुत्री को अपनी गोद में स्थान देने आए होंगे| पंद्रह अक्टूबर, उन्नीस सौ निन्यानबे में बयानबे वर्ष की आयु में क्रांतिकारियों की साँसों की सुरक्षा के लिए अपना लहु बहाने वाली वीरांगना दुर्गा भाभी ने अंतिम साँस ली| हम सभी के लिए इनका चरित्र प्रेरणा पुंज रहेगा| “आओ साथियों न करें प्रतीक्षा किसी की और जलाएँ दिए उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर कि शायद अब याद आ जाए सरकार को दुर्गा भाभी की और समज सके जनमानस की भावनाओं को|
*अखिलेश सिंह श्रीवास्तव 'दादू' ,दादू मोहल्ला,संजय वार्ड, सिवनी-480661(म.प्र.),मो. 7049595861 ई मेल- akhileshvwo@gmail.com
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