*प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी*
युगपुरुष, युगनिर्माता और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भारत के स्वंतत्रता आंदोलन के महानायक थे। महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान न केवल उस युग की सामाजिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर विचार किया वरन् इस युग की हिन्दुस्तानी जाति के गठन और उसके सांस्कृतिक परिवेश के युग पर भी चिंतन किया। इस युग की जो भी राजनैतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक पृष्ठभूमि रही है, उससे हिंदी और उर्दू भाषाओं को नई अर्थवत्ता और युगानुरूप मूल्य प्राप्त हुआ। हिंदी को युगानुरूप प्रवृत्तियों से जोड़कर राष्ट्रभाषा का स्थान दिया। वास्तव में स्वतंत्र भारत की नींव को सृदृढ़ करने के लिए गांधी जी ने जो-जो कार्य किए, उनमें हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की आवाज़ गांधी जी से पहले उठी थी, किंतु उस आवाज़ को सशक्त और बलवती बनाने का काम गांधी जी ने ही किया था। सुविख्यात फ़्रांसीसी विद्वान 'गार्सा द तासी' ने सन् 1852 में फ्रांस में अपने भाषण में 'हिन्दुई-हिन्दुस्तानी' को भारत की सार्वदेशिक या लोक भाषा की संज्ञा दी थी। सन् 1886 में अंग्रेजी के शब्दकोश 'हाब्सन-जाब्सन में 'हिन्दुस्तानी' को सभी भारतीय मुसलमानों की राष्ट्रभाषा माना गया। भारत में राजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन,स्वामी दयानंद आदि ने भारत को एकसूत्र में बाँधने वाली भाषा हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में अभिहित किया।
भारत बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक और बहुजातीय देश है। अतः भारत की बहुभाषी समस्या के बारे में गांधी जी के विचार बड़े स्पष्ट ,व्यावहारिक और निरपेक्ष भाव हैं। देश की स्वतंत्रता के लिए गांधी जी राष्ट्रीय एकता पर बल देते थे। राष्ट्रीय एकता के लिए उन्होंने एक ऐसी संपर्क भाषा की आवश्यकता समझी जिसके आध्ययन से समूचे राष्ट्र को एक सूत्र में जोड़ा जा सके। सन् 1915 में जब वे दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे तो उन्होंने पूरे देश की यात्रा की और यह पाया कि हिंदी ही एक मात्र भाषा है जो देश के अधिकतर भागों में बोली और समझी जाती है। वास्तव में गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में ही हिंदी की शक्ति और महत्ता को पहचान लिया था। इसलिए उन्होंने 1906 में 'इंडियन ओपिनियन' नामक अपनी पत्रिका में इस भाषा के महत्व पर चर्चा करते हुए इसे मीठी, नम्र और ओजस्वी भाषा कहा था। उन्होंने अपने लेखों से जहाँ स्वतंत्रता आन्दोलन के विभिन्न पक्षों पर चर्चा की हैं, वहाँ उनके भाषा विषयक विचार 'यंग इंडिया', 'हरिजन सेवक', 'नवजीवन', 'हरिजन बंधु' आदि पत्र-पत्रिकाओं में मिलते हैं। इसके अतिरिक्त 'इंडियन होमरूल' जैसी पुस्तकों और कुछ तत्कालीन विशिष्ट व्यक्तियों को लिखे उनके पत्रों में भी उनके विचार और आवधारणाएँ मिल जाती हैं। यहाँ यह बताना असमीचीन न होगा कि गांधी जी ने हिंदी भाषा की शक्ति को स्वीकार करते हुए सन् 1903 में दक्षिण अफ्रीका में अपने संपादन में 'इंडियन ओपिनियन' अख़बार चार भाषाओं में छापा था, जिसमें एक भाषा हिंदी भी थी। गांधी जी के भाषा संबंधी विचार सबसे पहले सन् 1909 में 'हिंदी स्वराज और होमरूल' में व्यक्ति किए हैं, ''हर एक पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानी को अपनी भाषा का, हिंदू को संस्कृत का, मुसलमान को अरबी का, पारसी को पर्शियन का और सब को हिंदी का ज्ञान होना चाहिए। कुछ हिंदुओं को अरबी और कुछ मुसलमानों और पारसियों को संस्कृत सीखनी चाहिए। उत्तर और पश्चिम में रहनेवाले हिन्दुस्तानी को तमिल सीखनी चाहिए। सारे हिन्दुस्तान के लिए तो हिंदी होनी ही चाहिए। उसे उर्दू या नागरी लिपि में लिखने की छूट रहनी चाहिए। ऐसा होने पर हम आपस के व्यवहार में से अंग्रेजी को निकाल बाहर कर सकेंगे। ''इस प्रकार गांधी जी के मतानुसार हिंदी भारत की, जनता की असली राष्ट्रभाषा है। इसी से भारत में एकता होगी और भारत का विकास होगा।
राष्ट्रभाषा हिन्दी ही हो सकती है
राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर विचार करते हुए गांधी जी एक ही भाषा को बनाए रखने के पक्षधर और समर्थक थे। उनके मतानुसार राष्ट्र के लिए एक भाषा होने से देश की एकता सिद्ध करने में भी सहायता मिल सकती है, इसलिए हिंदी को शिक्षा में सम्मिलित करना आवश्यक हे। राष्ट्रभाषा के संबंध में उनकी अवधारणा स्पष्ट है जो उन्होंने सन् 1917 में गुजरात शिक्षा परिषद, भड़ोच में अध्यक्षीय अभिभाषण देते हुए राष्ट्रभाषा संबंधी अपनी अवधारणा पर विस्तार से चर्चा की थी। किसी भाषा के राष्ट्रभाषा बनने के क्या लक्षण होने चाहिए, इस बात पर उन्होंने पाँच मुख्य लक्षण बताए–
1) सरकारी कर्मचारियों के लिए वह भाषा सरल होनी चाहिए।
2) उस भाषा के द्वारा भारत वर्ष का आपसी धार्मिक,आर्थिक और राजनीतिक व्यवहार हो सकना चाहिए।
3) यह जरूरी है कि भारत वर्ष के बहुत से लोग उस भाषा को बोलते हो।
4) राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए।
5) उस भाषा का विचार करते समय किसी क्षणिक या अस्थायी स्थिति पर जो़र नहीं देना चाहिए।
इसी संदर्भ में गांधी जी आगे कहते हैं कि इनमें से एक भी लक्षण अंग्रेजी में नहीं है। हिंदी में ये सभी लक्षण है और इसलिए हिंदी राष्ट्रभाषा पद के योग्य ठहरती है। राष्ट्र की भाषा अंग्रेजी नहीं हो सकती हैं। अंग्रेजी को राष्ट्रीय भाषा बनाने की कल्पना हमारी निर्बलता की निशानी है।
उन्होंने सन् 1918 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के आठवें अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए कहा था ''यदि हिंदी भाषा की भूमिका सिर्फ उत्तर प्रांत की होगी तो साहित्य का प्रदेश संकुचित होगा। हिंदी भाषा राष्ट्रीय भाषा होगी तो साहित्य का विस्तार भी राष्ट्रीय होगा। जैसा भाषक वैसी भाषा। भाषासागर में स्नान करने के लिए पूर्व-पश्चिम, दक्षिण-उत्तर से पुनीत महात्मा आएँगे तो सागर का महत्व स्नान करने वालों के अनुरूप होना चाहिए। इसलिए साहित्य-दृष्टि से भी हिंदी भाषा का स्थान विचारणीय है।'' हिंदी की व्याख्या करते हुए गांधी जी ने यह भी कहा था कि हिंदी भाषा वह भाषा है जिसको उत्तर में हिंदू व मुसलमान बोलते है और जो नागरी अथवा अरबी-फारसी लिपि में लिखी जाती है। वह हिंदी एकदम संस्कृतमयी नहीं है और न ही वह एकदम अरबी एवं फारसी के शब्दों से लदी हुई है। गांधी जी ने यह देखा और परखा था कि हिंदी या हिंदुस्तानी भाषा में जोड़ने की अद्भुत शक्ति निहित है और वह भारत को एक राष्ट्र के रूप में संगठित कर सकती है।
शिक्षा का माध्यम मातृभाषा
शिक्षा का माध्यम कौन-सी भाषा हो, इस बारे में उनका दो टूक जवाब था कि मातृभाषा को ही शिक्षा का माध्यम होना साहिए। उन्होंने 'यंग इंडिया' हरिजन' आदि पत्रिकाओं में यदा-कदा विदेशी माध्यम का बच्चों पर प्रभाव (अंग्रेजी बनाम मातृभाषा), उच्च शिक्षा के लिए पूर्णतया नकार दिया। उनके शब्दों में ''भारत में विदेशी भाषा के माध्यम से उच्च शिक्षा देने के कारण राष्ट्र की अपार बौद्धिक और नैतिक क्षति हुई है। हम अपने समय के इतने निकट है कि इस बात का निर्णय नहीं कर सकते कि इससे कितनी क्षति हुई हे।'' इस प्रकार गांधी जी समूचे भारत में शिक्षा के लिए हिंदी को अनिवार्य बनाने के प्रबल समर्थक थे। वे शिक्षा-माध्यम के साथ केंद्रीय तथा प्रादेशिक राज-काज में और अंतरराष्ट्रीय पत्रव्यवहार में अंग्रेजी के प्रयोग के विरोधी थे। उनकी यह मान्यता थी कि विदेशी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने से छात्र की क्षमता और योग्यता का पूर्ण विकास नहीं हो पाता।
हिंदी बनाम उर्दू, हिंदी या हिन्दुस्तानी, हिन्दुस्तानी, हिंदी और उर्दू, हिन्दी$उर्दू़+हिन्दुस्तानी संबंधी लेख में गांधी जी ने हरिजन सेवक'' 17जुलाई, 1937, 3 जुलाई 1937, 29 अक्तूबर 1938, 8 फरवरी, 1942)के विभिन्न अंको में हिंदी,उर्दू और हिंदुस्तानी के विवाद पर अपनी लेखनी चलाई थी और वे बाद में इसी समस्या पर अपने विचार प्रस्तुत करते रहें। उस काल में एक वर्ग हिंदी का प्रबल समर्थक था और उसे श्रेष्ठ मानता था। दूसरा वर्ग उर्दू श्रेष्ठ मानता था। इस विवाद से गांधी जी काफी आहत थे, क्योंकि उन्हें यह आशंका थी कि यह विवाद भारत के स्वतंत्रता-संग्राम में बाधक हो सकता हे। उन्होंने दोनों वर्गों की गलतफहमी दूर करने के लिए कहा कि हिंदी उर्दू और हिन्दुस्तानी शब्द उस एक ही ज़बान के सूचक है, जिसे उत्तर भारत में हिन्दू-मुसलमान बोलते हैं जो देवनागरी या अरबी-फ़ारसी लिपि में लिखी जाती हे। इस बारे में उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि हिंदी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है और उर्दू अरबी-फ़ारसी लिपि में लिखी जाती है, किंतु इन दोनों भाषा-रूपों का मौखिक रूप हिन्दुस्तानी है जिसे सभी वर्ग बोलते हैं। वास्तव में उस समय मुस्लिम में अविश्वास और पार्थक्य की भावना पैदा हो रही थी जिसे वे दूर करना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि सरकारी कामकाज और सूचनाएँ दोनों लिपियों में प्रकाशित की जाएँ। वास्तव में पूर्व धर्मनिरपेक्ष भारत की भाषा हिन्दी के लिए उनका यह सुझाव उचित भी था। वे जानते थे कि हिन्दुस्तानी का सुझाव देने से दोनों वर्ग में अलगाव और अविश्वास की भावना दूर होगी, इसीलिए उन्होंने एक बात और कही कि असली प्रतिस्पर्धा तो हिंदी और उर्दू में नहीं, बल्कि हिन्दुस्तानी और अंग्रेजी में है। वही करारा मुकाबला है, क्योंकि हिन्दुस्तानी उस काल की माँग थी।
गांधी जी एक महान मनीषी, विचारक, दार्शनिक और भाषाचिंतक थे। भारत में जातीय, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता के साथ भाषिक विविधता भी मिलती है। इसी कारण गांधी जी की भाषा नीति वास्तव में भारत की भाषा नीति थी। उनके भाषा दर्शन में हिंदी, उर्दू और हिदुस्तानी का सिद्धांत उठना स्वाभाविक था, क्योंकि स्वतंत्र भारत में अखिल भारतीय राजभाषा का अन्य भारतीय भाषाओं से संबंध भी अपेक्षित है। इसीलिए वे हिन्दुस्तानी के समर्थक थे और वे जीवन पर्यंत इसी बात पर अड़े रहे, हालांकि उनके मन में यह साफ था कि हिंदी भारत की राजभाषा के रूप में अधिक प्रभावकारी होगी। गांधी जी के हिंदी और उर्दू संबंधी विचारों से कई लोग सहमत नहीं थे, किंतु यह बात अवश्य है कि गांधी जी अंग्रेजी को संपर्क भाषा मानने के लिए कतई सहमत नहीं थे। उन्होंने 21 सितंबर 1947 के 'हरिजन' पत्र में स्पष्ट लिखा था कि मुट्ठी भर अंग्रेजीदाँ लोगों के लिए सारे राष्ट्र पर ऐसा सांस्कृतिक बोझ कभी नहीं लादा जा सकता। मैं कहता हूँ कि एक सांस्कृतिक अपहारक के रूप में अंग्रेजी को भी हमें उसी तरह निकाल फेंकना चाहिए जिस तरह हमने अंग्रेजों के राजनैतिक शासन को सफलतापूर्वक उख़ाड फैंका।
गांधी जी राष्ट्रीय आत्मसम्मान की रक्षा के लिए अंग्रेजी के पक्ष में बिलकुल नहीं थे। उन्होंने जोरदार शब्दों में यह कह दिया था कि जो लोग अपनी मातृभाषा छोड़ देते हैं, वे देशद्रोही हैं और वे जनता के प्रति विश्वासघात करते हैं।
देवनागरी लिपि ही राष्ट्रीय लिपि
लिपि की समस्या भी हिंदी, उर्दू और हिन्दुस्तानी की भाँति रही हैं, किंतु गांधी जी जानते थे कि देवनागरी लिपि ही राष्ट्रीय लिपि के योग्य हे। उन्होंने 'हिंदी नवजीवन' के 21 जुलाई 1927 के अंक में कहा, ''सचमुच मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि भारत की तमाम भाषाओं के लिए एक ही लिपि का होना फ़ायदेमंद है और वह लिपि देवनागरी ही हो सकती है।'' 18 फरवरी 1938 के 'हरिजन सेवक' के अंक में भी गांधी जी ने कहा था कि 'यदि भारत की कोई सर्वमान्य हो सकने वाली कोई लिपि है तो वह देवनागरी है।' सन् 1948 में गांधी जी के निधन के बाद अधिकतर राजनेता उनकी विचारधारा से परे जाने लगे। वे अंग्रेजी के गुलाम हो गए हैं। वास्तव में गांधी जी की विचारधारा एक चिंतन प्रक्रिया और उनके अनुभवों पर आधारित है, चाहे वह विवादास्पद भी रही है, किंतु यह बात अवश्य है कि गांधी जी के नितांत स्पष्ट, सहज और अनुभवाश्रित हैं।
इस प्रकार गांधी जी का भाषा चिंतन एक ऐसी प्रक्रिया से गुजरा है जो पूरे राष्ट्र को अपने भीतर समेटे हुए था। वे भाषाविद तो नहीं थे, किंतु युगदृष्टा के रूप में हिन्दी भाषा की महत्ता से पूरी तरह परिचित थे। उन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने का जो संकल्प लिया था, उसकी बुनियाद निश्चय ही भाषा थी और वह भी हिन्दी। इसी कारण हमारे राजनेताओं ने संविधान में देवनागरी लिपि में लिखित हिंदी को राजभाषा का स्थान सदिलाने का कृतसंकल्प लिया था।
*प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी,1764, औट्रम लाइन्स, डॉ. मुखर्जी नगर,दिल्ली -110009
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