*ललित गर्ग*
भारतीय राजनीति में खैरात बांटने एवं मुक्त की सुविधाओं की घोषणाएं करके मतदाताओं को ठगने एवं लुभाने की कुचेष्टाओं का प्रचलन बढ़ता ही जा रहा है। महाराष्ट्र एवं हरियाणा विधानसभा चुनाव के सन्दर्भ में ऐसी अतिश्योक्तिपूर्ण घोषणाओं को हमने देखा एवं आगामी दिल्ली विधानसभा चुनाव को देखते हुए अरविन्द केजरीवाल ऐसी ही घोषणाओं की झड़ी लगा रहे हैं। लोकतंत्र में इस तरह की बेतूकी एवं अतिश्योक्तिपूर्ण घोषणाएं एवं आश्वासन राजनीति को दूषित करते हैं, जो न केवल घातक है बल्कि एक बड़ी विसंगति का द्योेतक हैं। किसी भी सत्तारूढ पार्टी को जनता की मेहनत की कमाई को लुटाने के लिये नहीं, बल्कि उसका जनहित में उपयोग करने के लिये जिम्मेदारी दी जाती है। इस जिम्मेदारी का सम्यक् निर्वहन करके ही कोई भी सत्तारूढ पार्टी या उसके नेता सत्ता के काबिल बने रह सकते हंै। कहां गया विकासवाद का परचम, देश को विकसित देशों की श्रेणी में कतारबद्ध खड़ा करने की सोच? पार्टियां जिस तरह अपनी सीमा से कहीं आगे बढ़कर लोक-लुभावन वादे करने लगी हैं उसे किसी भी तरह से जनहित में नहीं कहा जा सकता। बेहिसाब लोक-लुभावन घोषणाएं और पूरे न हो सकने वाले आश्वासन पार्टियों को तात्कालिक लाभ तो जरूर पहुंचा सकते हैं, पर इससे देश के दीर्घकालिक सामाजिक और आर्थिक हालात पर प्रतिकूल असर पड़ने की भी आशंका है।
प्रश्न है कि क्या सार्वजनिक संसाधन किसी को बिल्कुल मुफ्त में उपलब्ध कराए जाने चाहिए? क्या जनधन को चाहे जैसे खर्च करने का सरकारों को अधिकार है? तब, जब सरकारें आर्थिक रूप से आरामदेह स्थिति में न हों। यह प्रवृत्ति राजनीतिक लाभ से प्रेरित तो है ही, सांस्थानिक विफलता को भी ढकती है, और इसे किसी एक पार्टी या सरकार तक सीमित नहीं रखा जा सकता। अर्थव्यवस्था और राज्य की माली हालत को ताक पर रखकर लगभग सभी पार्टियों व सरकारों ने गहने, लैपटॉप, टीवी, स्मार्टफोन से लेकर चावल, दूध, घी तक बांटा है या बांटने का वादा किया है। यह मुफ्तखोरी की पराकाष्ठा है। मुफ्त दवा, मुफ्त जाँच, लगभग मुफ्त राशन, मुफ्त शिक्षा, मुफ्त विवाह, मुफ्त जमीन के पट्टे, मुफ्त मकान बनाने के पैसे, बच्चा पैदा करने पर पैसे, बच्चा पैदा नहीं (नसबंदी) करने पर पैसे, स्कूल में खाना मुफ्त, मुफ्त जैसी बिजली 200 रुपए महीना, मुफ्त तीर्थ यात्रा। जन्म से लेकर मृत्यु तक सब मुफ्त। मुफ्त बाँटने की होड़ मची है, फिर कोई काम क्यों करेगा? मुफ्त बांटने की संस्कृति से देश का विकास कैसे होगा? पिछले दस सालों से लेकर आगे बीस सालों में एक ऐसी पूरी पीढ़ी तैयार हो रही है या हमारे नेता बना रहे हैं, जो पूर्णतया मुफ्त खोर होगी। अगर आप उनको काम करने को कहेंगे तो वे गाली देकर कहेंगे, कि सरकार क्या कर रही है?
विडम्बना एवं विसंगति की हदें पार हो रही है। ये मुफ्त एवं खैरात कोई भी पार्टी अपने फंड से नहीं देती। टैक्स दाताओं का पैसा इस्तेमाल करती है। हम 'नागरिक नहीं परजीवी' तैयार कर रहे हैं। देश का टैक्स दाता अल्पसंख्यक वर्ग मुफ्त खोर बहुसंख्यक समाज को कब तक पालेगा? जब ये आर्थिक समीकरण फैल होगा तब ये मुफ्त खोर पीढ़ी बीस तीस साल की हो चुकी होगी। जिसने जीवन में कभी मेहनत की रोटी नहीं खाई होगी, वह हमेशा मुफ्त की खायेगा। नहीं मिलने पर, ये पीढ़ी नक्सली बन जाएगी, उग्रवादी बन जाएगी, पर काम नहीं कर पाएगी। यह कैसा समाज निर्मित कर रहे हैं? यह कैसी विसंगतिपूर्ण राजनीति है? राजनीति छोड़कर, गम्भीरता से चिंतन करने की जरूरत है।
वर्ष 2020 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए दिल्ली में महिलाओं को मेट्रो और डीटीसी बस में मुफ्त यात्रा के साथ-साथ बिजली-पानी-शिक्षा-चिकित्सा को लगभग मुफ्त उपलब्ध कराने की जो विसंगतिपूर्ण घोषणाएं की हैं, उसने अनेक सवाल खड़े कर दिये हैं। यह विसंगति इसलिये है कि दिल्ली सरकार एक तरफ तो कह रही है कि दिल्ली में विकास के लिए पैसा नहीं लेकिन मुफ्त की यात्रा के लिए 1300 करोड़ की सलाना सब्सिडी देने के लिए तैयार हो गई है। लोकतंत्र में इस तरह की बेतूकी एवं अतिश्योक्तिपूर्ण घोषणाएं एवं आश्वासन राजनीति को दूषित करते हैं। दिल्ली से पहले यह सब खेल तमिलनाडु की राजनीति से शुरू हुआ था जहां साड़ी, मंगलसूत्र, मिक्सी, टीवी आदि बांटने की संस्कृति ने जन्म लिया। भाजपा एवं कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल इससे अछूते नहीं है। आज देश के ऐसे बहुत से राज्य हैं जहां इसका विस्तार हो गया है। यह संस्कृति थमने का नाम ही नहीं ले रही है। सस्ते दर पर अनाज मुहैया कराने की परंपरा घातक साबित होने वाली है। अगर ऐसा ही रहा तो किसानों को खेती में सिर खपाने की क्या जरूरत है? सीमांत किसान, जिस पर देश के 50 प्रतिशत कृषि उत्पादन का भार है, मनरेगा या अन्य किसी दिहाड़ी कामकाज से जुड़कर 300 रुपये प्रतिदिन कमा ही लेगा। जाहिर है इस पैसे से वह पर्याप्त अनाज प्राप्त कर लेगा। सवाल है कि ऐसे में खेती कौन करेगा? इस तरह खेरात में रेवड़िया बांटने या जनधन का दुरुपयोग करने से पात्रता हासिल नहीं हो सकती। लगता है कि राजनीतिक दल इस बात से पूरी तरह बेखबर हैं कि लोक लुभावन राजनीति के कैसे दुष्परिणाम हो सकते हैं। वे सत्ता हासिल करने के लिए सामाजिक और आर्थिक हालात को एक ऐसी अंधेरी खाई की तरफ धकेल रहे हैं जहां से निकलना कठिन हो सकता है।
वर्तमान दौर की सत्ता लालसा की चिंगारी इतनी प्रस्फुटित हो चुकी है, सत्ता के रसोस्वादन के लिए जनता और व्यवस्था को पंगु बनाने की राजनीति चल रही है। राजनीतिक दलों की बही-खाते से सामाजिक सुधार, रोजगार, नये उद्यमों का सृजन, खेती को प्रोत्साहन, ग्रामीण जीवन के पुनरुत्थान की प्राथमिक जिम्मेवारियां नदारद हो चुकी है, बिना मेहंदी लगे ही हाथ पीले करने की फिराक में सभी राजनीतिक दल जुट चुके हंै। जनता को मुफ्तखोरी की लत से बचाने की जगह उसकी गिरफ्त में कर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने में लगे हैं। लोकतंत्र में लोगों को नकारा, आलसी, लोभी, अकर्मण्य, लुंज बनाना ही क्या राजनीतिक कत्र्ता-धत्र्ताओं की मिसाल है? अपना हित एवं स्वार्थ-साधना ही सर्वव्यापी हो चला है?
बेरोजगारी, व्यापार-व्यवसाय की टूटती सांसें एवं किसानों की समस्याओं को भी हल करने में ईमानदारी बरतने की बजाय सरकारें इसी तरह के लोक-लुभावन कदमों के जरिए उन्हें बहलाती रही हैं। ऐसी नीतियों पर अब गंभीरता से गौर करने की जरूरत है। अपने राज्य की स्त्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करना हरेक सरकार का अहम दायित्व है, लेकिन उनकी मुकम्मल सुरक्षा मेट्रो या बस में मुफ्त यात्रा की सुविधा में नहीं, बल्कि अन्य सुरक्षा उपायों के साथ टिकट खरीदकर उसमें सफर करने की आर्थिक हैसियत हासिल कराने में है। हकीकत में इन तरीकों से हम एक ऐसे समाज को जन्म देंगे जो उत्पादक नहीं बनकर आश्रित और अकर्मण्य होगा और इसका सीधा असर देश की पारिस्थितिकी और प्रगति, दोनों पर पड़ेगा। सवाल यह खड़ा होता है कि इस अनैतिक राजनीति का हम कब तक साथ देते रहेंगे? इस पर अंकुश लगाने का पहला दायित्व तो हम जनता पर ही है, पर शायद इसमें चुनाव आयोग को भी सख्ती से आगे आना होगा।
आज राजनीतिक परिपाटी में मुफ्त-खैरात की संस्कृति चुनाव जीतने का हथियार बन गया है। सच्चाई यह भी है कि ये कोरे मुफ्त वादें जमीनी सतह पर उतरते भी कहां है, कोरे लुभाने एवं ठगने का माध्यम बनते हैं। किसानों के कर्ज माफ की बात की जाती है, लेकिन यह सर्वविदित है, कि उत्तरप्रदेश के गन्ना किसानों को उनकी पूंजी भी नसीब नहीं होती, फिर जरूरत किसानों को सबल बनाने की है, उन्हें निर्बल कर रौंदने की नहीं। मुफ्त एवं खैराती वादों के भरोसे सत्ता की चाबी तो हथियायी जा सकती है, लेकिन राष्ट्र प्रगति नहीं कर पायेगा और विकास के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ पायेगा। चुनाव आयोग को भी चुनावी घोषणा पत्र की निगरानी रखनी होगी, और सत्ता में आने पर तय सीमा के भीतर वादों को पूरा करने का दबाव डालना होगा और निगरानी तंत्र विकसित करना होगा, तभी लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनावी घोषणा पत्रों एवं मुफ्त के आश्वासनों का कुछ सफल अर्थ निकलकर सामने आ सकता है। इसके साथ राजनीतिक दलों को घोषणा-पत्रों को मुफ्तखोरी का संस्कृति दस्तावेज बनाने की बजाय सामाजिक सुधार और पुनरुत्थान पर बल देना होगा।
*ललित गर्ग.ई-253, सरस्वती कुंज अपार्टमेंट,25, आई0पी0 एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-मो. 9811051133
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