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पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण-मुक्ति का शंखनाद (लेख)


*ललित गर्ग*

दिल्ली के मावलंकर ओडिटोरियम में जिस तरह का प्रकृति-पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण-मुक्ति का शंखनाद हुआ, वह विश्व की ज्वलंत समस्या के समाधान की दिशा में एक सार्थक कदम कहा जायेगा। अवसर था भाऊराव देवरस सेवा न्यास द्वारा 26वें भाऊराव देवरस स्मृति व्याख्यान का। विषय था पर्यावरणीय संकट और जनजीवन के लिये चुनौतियां। इस अवसर पर जलशक्ति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत ने कुशल राजनीतिक एवं पर्यावरणविद की भांति धरती पर मंडरा रहे खतरों के लिये जागरूकता एवं स्वच्छ जल जन-जन तक पहुंचाने का जो संकल्प व्यक्त किया वह एक शुभ संकेत है, नये भारत के अभ्युदय का प्रतीक है। उम्मीद बंधी कि सरकार की नीतियों में जल, जंगल, जमीन एवं जीवन की उन्नत संभावनाएं और भी प्रखर रूप में झलकेगी।
नवरात्रा के शुभारंभ पर भव्य उपस्थिति के बीच श्रोताओं ने महसूस किया कि पर्यावरण के सम्मुख उपस्थित खतरे कितने भयावह एवं जानलेवा है एवं उनके समाधान की दृष्टि से सरकार के साथ-साथ भाऊराव देवरस सेवा न्यास जैसे जनसेवा संगठनों ने कुछ ठानी है तो उसका स्वागत होना ही चाहिए। क्या कुछ छोटे, खुद कर सकने योग्य कदम नहीं उठाये जा सकते? पर्यावरण संरक्षण में हम हर तरह से सहयोग करने की कोशिश कर सकते। जलवायु परिवर्तन भी विभिन्न प्रकार के भूमि क्षरण का कारण बन रहा है। समुद्र के जलस्तर में वृद्धि, अनियमित वर्षा, असंतुलित मौसम चक्र और तूफान के कारण ऐसा हो रहा है। इस व्याख्यान में दुनिया में बढ़ते मरुस्थलीकरण से बचाने की चर्चा भी हुई। भगवतीप्रकाश शर्मा, कुलपति - गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय ने अपने विस्तृत व्याख्यान में जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता, मरुस्थलीकरण, वायु, जल, जंगल, जमीन, ध्वनि, कृषि प्रदूषण जैसी समस्याओं की चर्चा करते हुए कहा कि यदि शुद्ध पानी, शुद्ध हवा, उपजाऊ भूमि, शुद्ध वातावरण एवं शुद्ध वनस्पतियाँ नहीं मिल सकेंगी तो इन सबके बिना हमारा जीवन जीना मुश्किल हो जायेगा। आज आवश्यकता है कि प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की ओर विशेष ध्यान दिया जाए, जिसमें मुख्यतः धूप, खनिज, वनस्पति, हवा, पानी, वातावरण, भूमि तथा जानवर आदि शामिल हैं। इन संसाधनों का अंधाधुंध दुरुपयोग किया जा रहा है, जिसके कारण ये संसाधन धीरे-धीरे समाप्त होने की कगार पर हैं। इस जटिल होती समस्या की ओर चिन्तीत होना एवं कुछ सार्थक कदम उठाने के लिये पहल करना जीवन की नयी संभावनाओं को उजागर करता है। इंसान की आने वाली पीढ़ियों के लिए धरती भविष्य में भी सुरक्षित बनी रहे इसके लिये भारत इसमें अग्रणी भूमिका निभा सकता है। क्योंकि भारत के पास समृद्ध विरासत एवं आध्यात्मिक ग्रंथ ऋग्वेद आदि है जो पर्यावरण का आधार रहे हैं।
भगवतीप्रकाश शर्मा ने जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता में कमी और भूमि के बंजर होने के कारणों में इंसानी दखल को प्रमुख बताया, तीनों आपस में जुड़े हुए हैं। अब सकारात्मक दखल के जरिए इसे सुधारने और भावी पीढ़ी को बेहतर भविष्य देने का समय आ गया है। पिछले 200 साल में हमने पर्यावरण को जो नुकसान पहुंचाया है, उसे ठीक करना है। उन्होंने पौधों एवं कीट-पतंगों के लगातार कम होती किस्मों को भी पर्यावरण के सम्मुख गंभीर संकट बताया। समूचे विश्व में 2 लाख 40 हजार किस्म के पौधे और 10 लाख 50 हजार प्रजातियों के प्राणी हैं। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजनर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) एक की रिपोर्ट में कहा कि विश्व में जीव-जंतुओं की 47677 विशेष प्रजातियों में से एक तिहाई से अधिक प्रजातियां यानी 15890 प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। आईयूसीएन की रेड लिस्ट के अनुसार स्तनधारियों की 21 फीसदी, उभयचरों की 30 फीसदी और पक्षियों की 12 फीसदी प्रजातियाँ विलुप्ति की कगार पर हैं। वनस्पतियों की 70 फीसदी प्रजातियों के साथ ताजा पानी में रहने वाले सरिसृपों की 37 फीसदी प्रजातियों और 1147 प्रकार की मछलियों पर भी विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। ये सब इंसान के लालच और जगलों के कटाव के कारण हुआ है। गंदगी साफ करने में कौआ और गिद्ध प्रमुख हैं। गिद्ध शहरों ही नहीं, जंगलों से खत्म हो गए। 99 प्रतिशत लोग नहीं जानते कि गिद्धों के न रहने से हमने क्या खोया? लोग कहते है कि उल्लू से क्या फायदा, मगर किसान जानते हैं कि वह खेती का मित्र है, जिसका मुख्य भोजन चूहा है। भारतीय संस्कृति में पशु पक्षियों के संरक्षण और संवर्धन की बात है। इसीलिए अधिकांश हिंदू धर्म में देवी-देवताओं के वाहन पशु -पक्षियों को बनाया गया है। एक और बात बड़े खतरे का अहसास कराती है कि एक दशक में विलुप्त प्रजातियों की संख्या पिछले एक हजार वर्ष के दौरान विलुप्त प्रजातियों की संख्या के बराबर है।
गजेन्द्र सिंह शेखावत ने लगातार दूषित होते जल, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता और भूमि क्षरण जैसे मुद्दों पर सरकार की जागरूकता एवं सहयोग का भरोसा दिलाया। उन्होंने प्लास्टिक प्रदूषण के खतरों की चर्चा करते हुए कहा कि सरकार ने ठान लिया है कि भारत में सिंगल यूज प्लास्टिक के लिए कोई जगह नहीं होगी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पूर्व में ही देश को स्वच्छ भारत मिशन के तहत प्लास्टिक कचरे से मुक्त करने की अपील करते हुए एक महाभियान का शुभारंभ गांधी जयंती के अवसर पर करने का संकल्प व्यक्त कर चुके हैं। प्रकृति को पस्त करने, मानव जीवन एवं जीव-जन्तुओं के लिये जानलेवा साबित होने के कारण समूची दुनिया बढ़ते प्लास्टिक के उपयोग एवं उसके कचरे से चिन्तित है। जैसाकि सर्वविदित है कि 2015 और 2017 के बीच भारत में पेड़ों और जंगल के दायरे में आठ लाख हेक्टेयर की बढ़ोतरी हुई है। संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन संबंधी अंतर-सरकारी समिति (आईपीसीसी) ने पिछले महीने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि विश्व में 23 फीसदी कृषियोग्य भूमि का क्षरण हो चुका है, जबकि भारत में यह हाल 30 फीसदी भूमि का हुआ है। इस आपदा से निपटने के लिए कार्बन उत्सर्जन को रोकना ही काफी नहीं है। इसके लिए खेती में बदलाव करने होंगे, शाकाहार को बढ़ावा देना होगा और जमीन का इस्तेमाल सोच-समझकर करना होगा।
जल, जंगल और जमीन इन तीन तत्वों से प्रकृति का निर्माण होता है। यदि यह तत्व न हों तो प्रकृति इन तीन तत्वों के बिना अधूरी है। विश्व में ज्यादातर समृद्ध देश वही माने जाते हैं जहां इन तीनों तत्वों का बाहुल्य है। बात अगर इन मूलभूत तत्व या संसाधनों की उपलब्धता तक सीमित नहीं है। आधुनिकीकरण के इस दौर में जब इन संसाधनों का अंधाधुन्ध दोहन हो रहा है तो ये तत्व भी खतरे में पड़ गए हैं एवं भूमि की उत्पादकता कम होती जा रही है, पानी की कमी हो रही है। ऊपजाऊ भूमि भी रेगिस्तान में तब्दील हो रही है। तकनीकी तौर पर मरुस्थल उस इलाके को कहते हैं, जहां पेड़ नहीं सिर्फ झाड़ियां उगती हैं। जिन इलाकों में यह भू-जल के खात्मे के चलते हो रहा है, वहां इसे मरुस्थलीकरण का नाम दिया गया है। लेकिन शहरों का दायरा बढ़ने के साथ सड़क, पुल, कारखानों और रेलवे लाइनों के निर्माण से खेतिहर जमीन का खात्मा और बची जमीन की उर्वरा शक्ति कम होना भू-क्षरण का दूसरा रूप है, जिस पर कोई बात ही नहीं होती। लेकिन मोदी सरकार की जागरूकता से इस पर बात ही नहीं हो रही, बल्कि इस समस्या से निजात पाने की दिशा में सार्थक कदम भी उठाये जा रहे हैं।
चिन्तन एवं चिन्ता का एक ही मामला है लगातार विकराल एवं भीषण आकार ले रही बंजर भूमि, सिकुड़ रहे जलस्रोत, विनाश की ओर धकेली जा रही पृथ्वी एवं प्रकृति के विनाश के प्रयास। बढ़ती जनसंख्या, बढ़ता प्रदूषण, नष्ट होता पर्यावरण, दूषित गैसों से छिद्रित होती ओजोन की ढाल, प्रकृति एवं पर्यावरण का अत्यधिक दोहन- ये सब देश के लिए सबसे बडे़ खतरे हैं और इन खतरों का अहसास करना एवं कराना ही इस व्याख्यान का ध्येय था। प्रतिवर्ष धरती का तापमान बढ़ रहा है। आबादी बढ़ रही है, जमीन छोटी पड़ रही है। हर चीज की उपलब्धता कम हो रही है। आक्सीजन की कमी हो रही है। साथ ही साथ हमारा सुविधावादी नजरिया एवं जीवनशैली पर्यावरण एवं प्रकृति के लिये एक गंभीर खतरा बन कर प्रस्तुत हो रहा हैं। इस दिशा में एक कदम भी आगे बढ़ाने के लिए हमें विकास प्रक्रिया पर ठहरकर सोचने के लिए तैयार होना होगा। बात तभी बनेगी जब सरकार के साथ-साथ समाज भी अपना नजरिया बदले। इन स्थितियों मे भाऊराव देवरस जैसे समाजसेवी एवं करूणाशील व्यक्तित्व का शाश्वत आह्वान घोर अंधेरों के बीच उजालों के अवतरण का द्योतक है।
भाऊराव देवरस सेवा न्यास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को पोषित एवं पल्लवित करने वाला संगठन है, सेवा, शिक्षा एवं संस्कार निर्माण के अनूठे प्रकल्प को आकार देते हुए वह प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति भी जागरूक है। सीमित साधनों में यह न्यास समाज निर्माण का विलक्षण कार्य कर रहा है। एक सामाजिक-सांस्कृतिक-राष्ट्रीय संगठन के रूप में न्यास देश और शायद दुनिया का एक अनुकरणीय सेवा प्रकल्प है। जिसने हमेशा नई लकीरें खींची हैं, एक नई सुबह का अहसास कराया हैं। वह शोषण और स्वार्थ रहित समाज चाहता है, जिसमें सभी लोग समान हों। समाज में कोई भेदभाव न हो। दूसरों के अस्तित्व के प्रति संवेदनशीलता आदर्श जीवनशैली का आधार तत्व है और न्यास इसे प्रश्रय देता है। इसके बिना अखण्ड राष्ट्रीयता एवं समतामूलक समाज की स्थापना संभव ही नहीं है। जब तक व्यक्ति अपने अस्तित्व की तरह दूसरे के अस्तित्व को अपनी सहमति नहीं देगा, तब तक वह उसके प्रति संवेदनशील नहीं बन पाएगा। प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति भी संवदेनशीलता जागना जरूरी है।



*ललित गर्ग,ई-253, सरस्वती कुंज अपार्टमेंट, 25 आई. पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92,मो. 9811051133









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