Technology

3/Technology/post-list

लोक-सुख का है या लोक-दुःख


*ललित गर्ग*
दे
श के सामने हर दिन नयी-नयी समस्याएं खड़ी हो रही हैं, जो समस्याएं पहले से हैं उनके समाधान की तरफ एक कदम भी आगे नहीं बढ़ रहे हैं, बल्कि दूर होते जा रहे हैं। रोज नई समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं, कर रहे हैं। तब ऐसा लगता है कि पुरानी समस्याएं पृष्ठभूमि में चली गईं पर हकीकत में वे बढ़ रही हैं। हम जिस लोकतंत्र में जी रहे हैं वह लोक-सुख का लोकतंत्र है या लोक-दुःख का? हम जो स्वतंत्रता भोग रहे हैं वह नैतिक स्वतंत्रता है या अराजक? हमने आचरण की पवित्रता एवं पारदर्शिता की बजाय कदाचरण एवं अनैतिकता की कालिमा का लोकतंत्र बना रखा है। ऐसा लगता है कि धनतंत्र एवं सत्तातंत्र ने जनतंत्र को बंदी बना रखा है। हमारी न्याय-व्यवस्था कितनी भी निष्पक्ष, भव्य और प्रभावी हो, फ्रांसिस बेकन ने ठीक कहा था कि 'यह ऐसी न्याय-व्यवस्था है जिसमें एक व्यक्ति की यंत्रणा के लिये दस अपराधी दोषमुक्त और रिहा हो सकते हैं।' रोमन दार्शनिक सिसरो ने कहा था कि 'मनुष्य का कल्याण ही सबसे बड़ा कानून है।' लेकिन हमारे देश के कानून एवं शासन व्यवस्था को देखते हुए ऐसा प्रतीत नहीं होता, आम आदमी सजा का जीवन जीने को विवश है। सामाजिक न्याय के लिए सामाजिक एकता भंग नहीं की जा सकती। नहीं तो फिर रह क्या जाएगा हमारे पास। टमाटर, प्याज के आसमान छूते भाव- प्रतिदिन कोई न कोई कारण महंगाई को बढ़ाकर हम सबको और धक्का लगा जाता है और कोई न कोई टैक्स, अधिभार हमारी आय को और संकुचित कर जाता है। जानलेवा प्रदूषण ने लोगों की सांसों को बाधित कर दिया, लेकिन हम किसी सम्यक् समाधान की बजाय नये नियम एवं कानून थोप कर जीवन को अधिक जटिल बना रहे हैं।
आम चुनाव से ठीक पहले बेरोजगारी से जुड़े आंकड़ों पर आधारित रिपोर्ट लीक हो गई थी और नरेन्द्र मोदी सरकार की दूसरी पारी की शुरूआत में सरकार द्वारा जारी आंकड़ों में इसकी पुष्टि भी कर दी गई है। लेकिन प्रश्न है कि रोजगार को लेकर सरकार ने क्या सार्थक कदम उठाये हैं? कोरे सर्वे करवाने या समितियां बनाने से समस्या का समाधान नहीं होगा। अक्सर बेरोजगारी, महंगाई, प्रदूषण, भ्रष्टाचार जैसी बड़ी समस्याओं की भयावह तस्वीर सामने आती है तो इस तरह की समितियां बन जाती हैं। जो केवल तथ्यों का अध्ययन करती हैं कि कितने युवाओं को रोजगार मिला व कितने बेरोजगार रह गए। लेकिन प्रश्न है कि क्या ये समितियां या सर्वे रोजगार के नये अवसरों को उपलब्ध कराने की दिशा में बिखरते युवा सपनों पर विराम लगाने का कोई माध्यम बनते है? लोकतंत्र का लोक चाहे वह युवा हो या वृद्ध, उस पर व्यवस्था की कोई दया नहीं, संवेदना नहीं। सरकार किसी भी पार्टी की हो, सत्ता पर काबिज दल सर्वप्रथम अपना ही सुख, अपनी सुरक्षा एवं अपना ही स्थायित्व सुरक्षित करता है। सत्तासीन लोगों को न गैस का संकट, न उसकी कीमत बढ़ने-बढ़ाने का संकट, उनके लिये न आधार कार्ड के लिये कतार में खड़े होकर कार्ड बनावाने का संकट, न राशन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, पासपोर्ट, पैन कार्ड, आईडी कार्ड बनवाने का संकट  न चालान कटने का भय, न चालान जमा करवाने का संकट। यह कैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था है जिसमें जन-धन पर कुछ लोग सुख- सुविधाओं को भोगते है जबकि आम आदमी परेशानियों एवं समस्याओं को जीने को विवश है।
मोदी सरकार अपनी उपलब्धियों का चाहे जितना बखान करें, सच यह है कि आम आदमी की मुसीबतें एवं तकलीफें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। इसके बजाय रोज नई-नई समस्याएं उसके सामने खड़ी होती जा रही हैं, जीवन एक जटिल पहेली बनता जा रहा है। अगर हमारे सात दशक से अधिक बड़े लोकतंत्र में आज भी आम आदमी मजबूर है, परेशान है, समस्याग्रस्त है तो ये मजबूरियां, परेशानियां, समस्याएं  किसने पैदा की है? अमीरों के लिये तो सरकारी खजाने एवं सुविधाएं ही नहीं, बैंकों के कर्ज-कपाट खुले हैं, लेकिन आम आदमी, देश के युवाओं को कितना कर्ज और कितना धन सुलभता से मिल रहा है, यह प्रश्न मंथन का है। कर्ज का धन जन के कल्याण एवं आर्थिक सुदृढ़ता के लिये कितना लगाया जाता है? सरकारों के पास शक्ति के कई स्रोत है, लेकिन इस शक्ति से कितनों का कल्याण हो रहा है? कैसा विचित्र लोकतंत्र है जिसमें नेता एवं नौकरशाहों का एक संयुक्त संस्करण केवल इस बात के लिये बना है कि न्याय की मांग का जबाव कितने अन्यायपूर्ण तरीके से दिया जा सके। महंगाई के विरोध का जबाव महंगाई बढ़ा कर दो, रोजगार की मांग का जबाव नयी नौकरियों की बजाय नौकरियों में छंटनी करके दो, कानून व्यवस्था की मांग का जबाव विरोध को कुचल कर आंसू गैस, जल-तोप और लाटी-गोली से दो। नेता एवं नौकरशाह केवल खुद की ही न सोचें, अपने परिवार की ही न सोचें, जाति की ही न सोचें, पार्टी की ही न सोचंे, राष्ट्र की भी सोचें। क्या हम लोकतंत्र को अराजकता की ओर धकेलना चाह रहे हैं?  नेतृत्व आज चुनौतीभरा अवश्य है, विकास का मंत्र भी आकर्षक है, लेकिन सबसे बड़ा विकास तभी संभव है जब जनता खुश रहे, निर्भार रहे, सुखी रहे और लगे कि यह जनता के सुख का लोकतंत्र है।
 विकास की लम्बी-चोड़ी बातें हो रही हैं, विकास हो भी रहा है, देश अनेक समस्याओं के अंधेरों से बाहर भी आ रहा है। आम जनता के चेहरों पर मुस्कान भी देखने को मिल रही है, लेकिन बेरोजगारी, महंगाई, प्रदूषण, नारी सुरक्षा क्यों नहीं सुनिश्चित हो पा रही है? भारत में भी विकास की बातें बहुत हो रही हैं, सरकार रोजगार की दिशा में भी आशा एवं संभावनाभरी स्वयं को जाहिर कर रही है। यह अच्छी बात है। लेकिन जब युवाओं से पूछा जाता है तो उनमें निराशा ही व्याप्त है। उनका कहना है कि बात केवल किसी भी तरह के रोजगार हासिल करने की नहीं है बल्कि अपनी मेहनत, शिक्षा, योग्यता और आकांक्षा के अनुरूप रोजगार प्राप्त करने की है। ऐसा रोजगार मिलना कठिन होता जा रहा है। उच्च शिक्षा एवं तकनीकी क्षेत्र में दक्षता प्राप्त युवाओं को सुदीर्घ काल की कड़ी मेहनत के बाद भी यदि उस अनुरूप रोजगार नहीं मिलता है तो यह शासन की असफलता का द्योतक हैं। डॉक्टर, सीए, वकील, एमबीए, ऐसी न जाने कितनी उच्च डिग्रीधारी युवा पेट भरने के लिये मजदूरी या ऐसे ही छोटे-मोटे कामों के लिये विवश हो रहे हैं, यह शासन व्यवस्था की नीतियों पर एक बड़ा प्रश्न है। हमें राष्ट्रीय स्तर से सोचना चाहिए वरना इन त्रासदियों से देश आक्रांत होता रहेगा। 
*ललित गर्ग,ई-253, सरस्वती कुंज अपार्टमेंट,25 आई. पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली,फोनः 22727486, 9811051133


Share on Google Plus

About शाश्वत सृजन

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 Comments:

एक टिप्पणी भेजें