Technology

3/Technology/post-list

मैंने एक गाँव को मरते हुए देखा है


*सलिल सरोज*


बेगूसराय मुख्यालय से 18 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नवलगढ़ जो कि कालांतर में नौलागढ़ बन गया,इस त्रासदी का शिकर हुआ।अगर आप इसके इतिहास में जाएँ तो यहाँ विग्रा पाला III के शिलालेख के साथ एक काले पत्थर टूटी मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जो कि इसके ऐतिहासिक धरोहर की वैभवता की कहानियाँ कहता है।  आज हम आदर्श और स्मार्ट शहर की बात करते हैं लेकिन यह गाँव आज से कुछेक 20 -25 साल पहले तक एक जीता जागता सुन्दर और रमणीय गाँव था।  शहर में काम करने वालों को गाँव से इतना प्रेम था क़ि लोग २ घंटे साईकिल चलाकर भी शनिवार की सुबह-सुबह गाँव पहुँच जाते और दो दिन उस ज़िंदगी को जीते थे। गाँव की चौहद्दी से बालान और बैंती नदी इसका श्रृंगार करती थी जहाँ लोग सुबह की सैर, स्नान एवं छठ  के त्यौहार तक को सम्पन्न किया करते थे। कच्चे घरों की छत और दीवारों पर साग -सब्जियाँ भरी होती थीं। बच्चे फूलगोभी की डंडियों से स्लेट को मिटाने का भी काम करते थे। बच्चे 50 पैसे में चॉकलेट ,बिस्किट और लेमनचूस खाके मस्त रहा करते थे। पूरे गाँव में चारों तरफ शीशम, कीकड़,बरगद,पीपल,अमरुद,नीम और सैकड़ों अन्य तरह के पेड़ लगे थे जो कि इसके वातावरण को रजनीगंधा की तरह सुगन्धित बनाए रखते थे। खेतों में जाकर चने खाने की ख़ुशी, गाय से दूध दूह कर पीने का आनंद सब कुछ तो था उस गाँव में। गाँव के मध्य में स्थित मंदिर की घंटियाँ जब सुबह-सुबह बजती थी तो चारों तरफ से बच्चे दौड़कर झाल-मृदंग बजाने के लिए लाइन में खड़े हो जाते थे और उन्हें इंतज़ार रहता था कि चीनी का प्रसाद कब मिलेगा। हालाँकि गाँव की सड़क कच्ची जरूर थी लेकिन माँ ,दादी ,भाभियाँ अपने घर के चौखट देखे बगैर सड़क तक साफ़ रखती थी और कई की शादियों के भोज का आयोजन का वो गवाह यही सड़क हुआ करता था। गाँव के मध्य में स्थित इनार (कुआँ ) शीतल और निर्मल जल लिए स्त्रियों  का मिलन स्थल हुआ करता था। देवर -भाभी की नोक - झोंक का उससे बेहतर जगह नहीं था और उस समय किसी के मन में कोई खटास भी नहीं थी। और गाँव का सबसे लोकप्रिय स्थल था -हाई स्कूल।  विशाल क्रीड़ास्थल, बड़ा सा गेट ,कक्षाएँ ,प्रयोगशालाएँ, झंडोत्तोलन की ऊँची सीढ़ियाँ और लम्बी से गैलरी तथा पूरा प्रांगण हरे भरे घासों और पेड़ों से परिपूर्ण।  वह स्कूल रोज़ ही नई-नवेली दुल्हन की तरह लगता था। ऐसा कहे कि गाँव की जान उस में बसती  थी तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।  उस स्कूल में हर व्यक्ति के लिए कुछ न कुछ था। महिलाएँ घर के काम काज से निपट कर कुछ गप्प कर लेती थी। बूढ़े -बुजुर्ग खुली हवा का आनंद ले लिया करते थे।  बच्चे कभी गेट में झूला करते , तो कोई भैया ,पिताजी से चुराके साईकिल सीखने आ जाते , तो कोई बच्चा पेड़ों पर चढ़ा नज़र आता तो लड़कियाँ फूलों को चुनती नज़र आ जाया करती थीं। गाँव के युवा मैदान में लगे वॉलीबाल कोर्ट में क्या कमाल की फ्लिप,स्मैश ,ब्लॉक और लिफ्ट किया करते थे। क्या माहौल होता था शाम को उस स्कूल में। मानो कि शाम को पूरा गाँव एकत्रित होकर जश्न मना रहा हो।  लौटने के बाद किसी के चबूतरे पर किसी हारमोनियम तो किसी ढोलक की आवाज़ शाम को और भी मनोहारी कर देती थी। ऐसा लगता था जैसे यह उत्सव कभी ख़त्म न हो।  हम किसके घरों में खाना खाते थे ,हमें खुद भी याद नहीं। इतनी भाभियाँ थी कि खाने की चिंता ही नहीं रहती थी।  और सोते वक़्त दादी की कहानियाँ किसी और ही दुनिया में लेकर चली जाती थी।  आज समझ में आता है कि भले वो सच से परे थीं लेकिन सच से बहुत बेहतर थीं। 


लेकिन शायद किसी की बुरी नज़र लग गई इस जीते-जागते गाँव को। राजनीतिक उपेक्षाओं का शिकार यह गाँव शायद आपको भारतीय मानचित्र पर आसानी से मिले भी नहीं। इस गाँव को पक्की सड़क सन 2013 में नसीब हुई।  बिजली इसके दरवाजे तक 2017 में पहुँची। नक्सलवाद का शिकार यह गाँव सामाजिक समरसता का हर पाठ भूलता चला गया। ऐतिहासिक धरोहरें फिर से इतिहास के गर्त में पहुँचा दी जा चुकी हैं। जातिवाद का ज़हर ऐसा घुला यहाँ की फ़िज़ा में कि भाईचारा,दोस्ती,यारी सब कहीं खोकर रह गए। जातिगत राजनीति ने गाँव के हृदयस्थल को छिन्न -भिन्न कर दिया।  वह हाई स्कूल आज किसी विधवा जैसी प्रतीत होता है। उसके प्रांगण के सारे पेड़ कौरव के सौ पुत्रों की तरह काट दिए गए। उसका गेट, उसमें स्थित कुआँ ,कक्षाएँ ,मैदान सब उजड़ गए। कोई लालची प्रशासक उसे लूट कर चला गया।  पास से बहती नदियाँ गन्दगी से भर कर सूख गयी और जो कभी सुगंध लाया करती थी अब केवल बदबू लाती हैं।  जहाँ ठण्ड में कभी साइबेरियन क्रेन आते थे,अब कोई भी नहीं आता। आपसी विवाद में खेते बँटती चली गईं ,कितनी हत्याएँ हो गई और गाँव में डर का माहौल बन गया। जो युवा टूटे सड़कों से गाँव से बाहर पढ़ने के लिए गया वो पक्की सड़कों से भी कभी लौटकर वापस नहीं आया। कृषि ,पशुपालन और बुनाई से सम्पन्न यह गाँव आज दूसरे गाँव की जीविका पर ज़िंदा है , रोज़गार के नाम पर कुछ भी नहीं है। गायों को खिलाने और पालने की आर्थिक क्षमता ख़त्म हो चुकी है।  दूध -धान से से परिपूर्ण यह गाँव अच्छे खाने को तरस गया।  घरों की दीवारें पक्की हो गईं लेकिन वो फल,सब्जी,साग सब छूट गए।  कुआँ सूख कर विवाद का स्थल बन गया और मंदिरों में महंतों ने डेरा जमा लिया। किसी त्योहार में यह गाँव  मिल कर एक परिवार हो जाता था पर अब परिवार तो कई हैं  लेकिन वो सब मिल कर एक गाँव को नहीं बचा पाए।  सारे पढ़े -लिखे लोग बाहर चले गए। गाँव में बेरोज़गार और उद्दंड युवकों ने भय का साम्राज्य तैयार कर रखा है। वो जो एक आदर्श गाँव हुआ करता था अब क्या बन कर रह गया है ,पता नहीं। 


अगर देश के किसी भी थाने  में गाँव की हत्या का केस दर्ज होता हो तो जरूर इस गाँव का केस दर्ज किया जाए क्योंकि यह गाँव खुद विलीन नहीं हुआ वल्कि इसकी हत्या की गई है।


*सलिल सरोज


कार्यकारी अधिकारी


लोक सभा सचिवालय


संसद भवन ,नई  दिल्ली


Share on Google Plus

About शाश्वत सृजन

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 Comments:

एक टिप्पणी भेजें