*आर.के. सिन्हा*
भारत में औरतों को जीवन के हर क्षेत्र में समता दिलवाने का सपना पूरा होने में अभी वक्त लगेगा। हालांकि गुजरे कुछ दशकों के दौरान औरतों ने बहुत सारे अवरोधों को पार भी किया है। वे तमाम क्षेत्रों में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज भी करवा रही हैं।
पर मुसलमान औरतों के आगे बढ़ने की रफ्तार बहुत ही धीमी है। उन्हें बुर्के के अंदर कैद रखने के साथ-साथ ट्रिपल तलाक जैसे मुद्दों ने आगे ही नहीं बढ़ने दिया। तलाक वाला मसला तो अब कानूनी तौर पर हल हो गया है पर अब भी उन्हें कदम-कदम पर कठमुल्लों के फैसलों के आगे झुकना पड़ रहा है। उदाहरण के रूप में केरल को छोड़कर अधिकतर राज्यों में मुसलमान औरतें मस्जिद में जाकर नमाज नहीं पढ़ सकती। हालांकि कुरआन में उन्हें मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ने की मनाही का कहीं उल्लेख तक नहीं है। कुरआन में औरतें को कम से कम 59 जगहों पर मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ने की बात मिलती है। वरिष्ठ लेखक जिया उस सलाम कहते हैं कि हजरत मोहम्मद मर्दों को निर्देश देते हैं कि वे औरतों को मस्जिद में नमाज पढ़ने से न रोकें।
यानी इतने साफ निर्देशों के बाद भी मुसलमान औरतों के द्वारा उनके धार्मिक अनुष्ठानों को करने पर अवरोध खड़े किए जाते रहे हैं। वस्तुस्थिति यह है कि मस्जिदों को मर्दों का ही पूजा का स्थान मान लिया गया है। यह बेहद निंदनीय और शोचनीय स्थिति है। मुस्लिम समाज के रोशन ख्याल लोगों को इस दिशा में आगे आना ही होगा ताकि उनके समाज की औरतों को उनका वाजिब हक मिलें। यह भी सोचने वाली बात है कि अभी तक मुस्लिम समाज में पर्याप्त जागृति क्यों नहीं आई है? यह तो सारे देश ने देखा था जब मुस्लिम औरतों को संविधान के मूल सिद्धांतों के तहत तलाक़ जैसे मसले पर न्याय दिलाने की चेष्टा हुई तो उसका मुसलमान ही विरोध करने लगे थे। हालांकि उम्मीद तो यह थी कि तब कम से कम मुस्लिम समाज का पढ़ा लिखा तबका अंधकार युग में जीने को बाध्य करने वाले कठमुल्लों का कड़ा विरोध करेगा। पर यह नहीं हुआ। तब ये कठमुल्ले कहने लगे थे कि सरकार उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप कर रही है। हालांकि यह मानना होगा कि कुछ निर्भीक महिला संगठन सरकार के साथ खडी रही थीं। इन्होंने कठमुल्लों के आगे झुकने से साफ मना कर दिया था। ये महिला संगठन सही तो कह रहे थे कि जिस समाज में लिंग के आधार पर भेदभाव होता है वह समाज अपने लिए नई जगह नहीं बना सकता। दुखद यह है कि जब सरकार मुसलमान औरतों को उनके समाज में हक दिलवाने की प्रयासरत रही थी, तब मुसलमानों के धार्मिक संगठन कह रहे थे कि सरकार तो अपने हिंदुत्व के एजेंडा पर चल रही है। यानी इन्हें तो किसी न किसी बहाने मीनमेख निकालनी ही थी। ये कठमुल्ले जल्दी और आसानी से सुधरने वाले नहीं है। इनके शरीर पर पड़ी धूल को हटने और छंटने में अभी वक्त लगेगा।
यदि मुस्लिम समाज अपनी शिक्षा पर ही फोकस करने लगे तो इसका कल्याण हो जाएगा। तब ये कठमुल्ले भी अपने आप हाशिये पर आ जाएंगे। पर फिलहाल यह दूर की संभावना ही लगती है। मुझे कहने दीजिए कि उत्तर भारत में तो स्थिति वास्तव में बेहद खराब है। अगर बात देश की राजधानी दिल्ली की करें तो इधर आजादी के बाद सभी वर्गों ने अपने स्कूल खोले। कोई बता दे कि मुसलमानों ने कितने स्कूल खोले। इन्होंने लेकर देकर दो-तीन स्कूल खोले। उन्हें भी पंजाबी मुसलमान बिरादरी ने खोला। जबकि इसी दौरान दिल्ली में सिख,ईसाई, मराठी,तमिल, बंगाली, पंजाबी वगैरह समाज ने दर्जनों स्कूल खोले। इससे सारे समाज को लाभ हुआ। यहां पर किसी से कोई गिला-शिकवा नहीं किया जा रहा है। सिर्फ आईना दिखाने की कोशिश हो रही है।
औरतों को दोयम दर्जें का नागरिक समझने वाले मुसमानों को यह भी सोचना होगा कि उनके बच्चे बीच में ही स्कूल क्यों छोड़ देते हैं? वे अपनी पढ़ाई क्यों नहीं जारी रखते? कम से कम अब कोई यह तो नहीं कह सकता कि वो गरीबी के कारण अपनी पढ़ाई जारी नहीं रख सका। अब तो 12 वीं तक स्कूली शिक्षा मुफ्त है। इसके बावजूद मुसलमान बच्चों का बीच में पढ़ाई छोड़ने का क्रम बदस्तूर जारी ही है। जब तक कोई समाज शिक्षा के महत्व को नहीं समझेगा तब तक उसका कल्याण नहीं हो सकता। यह कहने से बात नहीं बनेगी कि उन्हें पढ़ने के बाद भी नौकरी नहीं मिलती। बुरा मत मानिए पर बहुत से मुसलमान इसी तरह के पिलपिले तर्क रखते हैं।
दरअसल नौकरी तो मेरिट पर मिलती है। नौकरी देने वाला शख्स जब किसी का इंटरव्यू कर रहा होता है तब उसके दिमाग में उसकी जाति, धर्म या लिंग नहीं होते। तब वह नौकरी के लिए आए इंसान के अनुभव और उसकी शैक्षणिक योग्यता को ही देख रहा होता है। इसलिए मुसलमान युवाओं के दिमाग में भ्रांतियां भरने वाले न तो अपनी कौम का और न ही देश के साथ न्याय कर रहे हैं। इसी भारत में अजीम प्रेमजी, शाहरूख खान, आमिर खान, मोहम्मद शमी जैसों को कोई आगे बढ़ने से रोक नहीं सका है। याद रख लीजिए कि नदी के प्रवाह और प्रतिभा को कोई दबा ही नहीं सकता।
यहां पर बात पसमांदा मुसलमानों की भी करने का मन कर रहा है। पसमांदा यानी जो पिछड़ गए। अगर आबादी के हिसाब से देखें तो अजलाफ़ (पिछड़े) और अरजाल (दलित) मुसलमान भारतीय मुसलमानों की कुल आबादी का कम-से-कम 85 फीसद हैं। पर मुस्लिम समाज में इनके लिए कोई जगह ही नहीं है। अपने को जातिविहीन कहने वाला मुसलमान जाति के भयंकर कोढ़ में फंसा हुआ है। इधर औरतों या पसमांदा मुसमानों के हक में बात ही नहीं होती। मुस्लिम रहनुमा उर्दू, अलीगढ़ मुस्लिम विविद्यालय, पर्सनल लॉ इत्यादि पर बातें करते हैं। इन मुद्दों पर गोलबंदी करके और अपने पीछे गरीब मुसलमानों को दिखाकर यह मौज काटते रहते हैं। यह सब करते हुए पसमांदाओं के सवाल कहीं पीछे छूट जाते हैं।
(लेखक राज्य सभा सदस्य हैं)
0 Comments:
एक टिप्पणी भेजें