*ललित गर्ग*
नागरिकता संशोधन कानून का जैसा हिंसक विरोध असम एवं पश्चिम बंगाल के बाद अब दिल्ली में हो रहा है उससे यही पता चल रहा कि अराजक तत्व उत्पात पर आमादा हैं, वे देश को जोड़ना नहीं तोड़ना चाहते हैं। सरकारी एवं निजी संपत्ति को आग के हवाले करने और सड़क एवं रेल मार्ग को बाधित करने एवं आम जनता में हिंसा एवं आतंक पैदा करने वाले इन उपद्रवी तत्वों का दुस्साहस इसीलिए चरम पर है, क्योंकि कुछ राजनीतिक दल उन्हें उकसाने में लगे हुए हैं। इस प्रकार यह आगजनी, हिंसा, विस्फोटों की शृंखला, अमानवीय कृत्य अनेक सवाल पैदा कर रहे हैं। इनके पीछे किसका दिमाग और किसका हाथ है? आज करोड़ों देशवासियों के दिल और दिमाग में यह सवाल है।
क्या हो गया है हमारे देश को? पिछले एक सप्ताह से हिंसा रूप बदल-बदल कर अपना करतब दिखा रही है- विनाश, सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने और निर्दोष लोगों को डराने-धमकाने की। इस तरह की अराजकता कोई मुश्किल नहीं, कोई वीरता नहीं। पर निर्दोष जब आहत होते हैं तब पूरा देश घायल होता है। उन उपद्रवी हाथों को खोजना होगा अन्यथा उपद्रवी हाथों में फिर खुजली आने लगेगी। हमें इस काम में पूरी शक्ति और कौशल लगाना होगा। अराजक एवं उत्पादी तत्वों की मांद तक जाना होगा। अन्यथा हमारी खोजी एजेंसियों एवं शासन-व्यवस्था की काबिलीयत पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा कि कोई दो-चार व्यक्ति कभी भी पूरे देश की शांति और जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर सकते हैं। कोई हमारा उद्योग, व्यापार ठप्प कर सकता है। कोई हमारी शासन प्रणाली को गूंगी बना सकता है। पश्चिम बंगाल के बारे में तो यह लगभग पूरी तौर पर साफ है कि ममता बनर्जी सरकार नागरिकता कानून के विरोध में सड़कों पर उतरे अराजक तत्वों को परोक्ष तौर पर शह देने में लगी हुई है। यही कारण है कि वहां मालदा, हावड़ा और मुर्शिदाबाद में व्यापक पैमाने पर हिंसा और आगजनी देखने को मिली। यदि उपद्रवी तत्वों के खिलाफ सख्ती का परिचय दिया जा रहा होता तो यह संभव ही नहीं था कि बंगाल एवं असम में अब तक हिंसा कायम रहती और उसकी चिंगारी देश के अन्य हिस्सो में पहुंच पाती। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि संकीर्ण राजनीतिक कारणों से बंगाल, असम और अब दिल्ली में हिंसा को भड़काया जा रहा है। केंद्र सरकार के लिए यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि वह इस तरह मचाए जा रहे उत्पात के लिए दोषी राजनीतिक दलों को जवाबदेह बनाए। चूंकि नागरिकता कानून की विरोधी हिंसा एवं हवाओं ने दिल्ली में भी अपने पैर पसार लिए हैं इसलिए केंद्र सरकार को अतिरिक्त सतर्कता बरतने के साथ ही सख्ती का भी परिचय देना होगा।
नागरिकता संशोधन कानून देश के नागरिकों एवं अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ नहीं है, कम से कम पढ़े लिखे लोग पढ़कर समझ ही विरोध करें। विरोधी एवं उत्पादी लोगों का दिल बड़ा है अच्छी बात है यदि आपको घुसपैठियों से दिक्कत नहीं तो उन बेचारे सैनिकों की बलि देने की क्या जरूरत है जो बार्डर पर तैनात हैं। सारे बार्डर खोल देने चाहिए ना? इतना बड़ा दिल है तो अपने घरों के दरवाजे भी छोड़ दीजिए खुले, सर्दी का मौसम है फुटपाथ पर सोने वाले लोग आराम से आकर सोएं घरों में। जब आप अपना घर खुला नहीं छोड़ सकते तो राष्ट्र को घुसपैठियों के लिये कैसे खुला छोड़ सकते हैं? कॉलेज स्टूडेंट का क्या मतलब है विरोध करने का? सड़कों पर उतरने का? बसें फूंकने का? विरोध का क्या यही तरीका है कि सरकारी संपत्ति में आग लगाओ? विरोध का मतलब नग्न अराजकता नहीं हो सकता। दिल्ली में अराजक भीड़ ने जिस तरह दिन-दहाड़े कई बसों और दोपहिया वाहनों को आग के हवाले किया उससे तो यही लगता है कि सुनियोजित तरीके से नागरिकता कानून विरोधी हिंसा को हवा दी जा रही है। चिंताजनक यह है कि यह खतरनाक काम देश के अनेक हिस्सों में हो रहा है। कई राजनीतिक दल इसके लिए अतिरिक्त मेहनत करते भी दिख रहे हैं। दुष्प्रचार में लिप्त ऐसे दलों की केवल आलोचना ही पर्याप्त नहीं। उन्हें बेनकाब भी किया जाना चाहिए। इसके साथ ही मानवतावादी होने का मुखौटा लगाए उत्पाती तत्वों को यह सख्त संदेश भी देना होगा कि किसी भी सूरत में हिंसा को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
निःसंदेह किसी के लिए भी यह समझना कठिन है कि दिल्ली में जामिया मिलिया विश्वविद्यालय अथवा उत्तर प्रदेश में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों को नागरिकता कानून का विरोध करने की जरूरत क्यों पड़ रही है? आखिर जब यह स्पष्ट है कि इस कानून का भारतीय मुसलमानों से कहीं कोई लेना-देना नहीं तब फिर उसके विरोध का क्या औचित्य? स्पष्ट है राजनीतिक अस्तित्व लगातार खो रहे राजनीतिक दल सत्ता तक पहुंच बनाने का यह अराजक रास्ता अख्तियार कर रहे हैं। उत्पात का पर्याय बन गए इस उन्माद भरे हिंसक विरोध से कड़ाई से निपटना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि कानून के शासन एवं लोकतांत्रिक मूल्यों की मजाक हो रही है। अब युद्ध मैदानांे में सैनिकों से नहीं, भीतरघात करके, निर्दोषों को प्रताड़ित एवं उत्पीड़ित कर लड़ा जाता है। सीने पर वार नहीं, पीठ में छुरा मारकर लड़ा जाता है। इसका मुकाबला हर स्तर पर हम एक होकर और सजग रहकर ही कर सकते हैं।
यह भी तय है कि बिना किसी की गद्दारी के ऐसा संभव नहीं होता है। कश्मीर, पश्चिम बंगाल एवं अन्य राज्यों में हम बराबर देख रहे हैं कि प्रलोभन देकर कितनों को गुमराह किया गया और किया जा रहा है। पर यह जो घटना हुई है इसका विकराल रूप कई संकेत दे रहा है, उसको समझना है। कई सवाल खड़े कर रहा है, जिसका उत्तर देना है। इसने नागरिकों के संविधान प्रदत्त जीने के अधिकार पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया, इसने भारत की एकता पर कुठाराघात किया है। यह बड़ा षड़यंत्र है इसलिए इसका फैलाव भी बड़ा हो सकता है। सभी राजनैतिक दल अपनी-अपनी कुर्सियों को पकडे़ बैठे हैं या बैठने के लिए कोशिश कर रहे हैं। उन्हें नहीं मालूम कि इन कुर्सियों के नीचे क्या है।
जब देश संकट में है हमारे कर्णधार कहे जाने वाले तथाकथित राजनीतिक दल एवं उनके नेता राष्ट्र को विखंडित करने के लिये लाठी-भालों से लड़ रहे हैं, कहीं टांगंे खींची जा रही हैं तो कहीं परस्पर आरोप लगाये जा रहे हैं, कहीं किसी पर दूसरी विचारधारा का होने का दोष लगाकर चरित्रहनन किया जा रहा है। सभी दुराग्रही हो गए हैं। विचार और मत अभिव्यक्ति के लिए देश का सर्वाेच्च मंच भारतीय संसद में भी आग्रह-दुराग्रह से ग्रसित होकर एक-दूसरे को नीचा दिखाने की ही बातें होती हैं। दायित्व की गरिमा और गंभीरता समाप्त हो गई है। राष्ट्रीय समस्याएं और विकास के लिए खुले दिमाग से सोच की परम्परा बन ही नहीं रही है। और तो और इन्हीं आग्रहों के साथ चुनावी वैतरणी पार करने का प्रयास किया जा रहा है। जब मानसिकता दुराग्रहित है तो ”दुष्प्रचार“ ही होता है। कोई आदर्श संदेश राष्ट्र को नहीं दिया जा सकता। सत्ता-लोलुपता की नकारात्मक राजनीति हमें सदैव ही उल्ट धारणा यानी विपथगामी की ओर ले जाती है। ऐसी राजनीति राष्ट्र के मुद्दों को विकृत कर उन्हें अतिवादी दुराग्रहों में परिवर्तित कर देती है।
भारत एक धर्मप्राण देश है। यहां पूजा-उपासना की स्वतंत्रता है, यह वसुधैव कुटुम्बकम का उद्घोष करने वाला देश है, यही भारतीय संस्कृति की विशेषता है। यहां हिन्दू, मुसलमान ही नहीं जैन, बौद्ध, पारसी, सिक्ख, ईसाई सनातनी सभी मजहबों के लोग भी तो रहते हैं। ये सभी अल्पसंख्यक हैं पर वे राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग नहीं हैं। जुड़े हुए हैं। वे कभी अपने को दोयम स्तर के नागरिक नहीं मानते। यही सांझा संस्कृति ही यहां की राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता का आधार है, लेकिन इसके बीच दरारें डाल कर राजनीतिक रोटियां सेकने के आग्रह, पूर्वाग्रह और दुराग्रह राष्ट्रीय जीवन के शुभ को आहत करने वाले हैं।
नागरिकता कानून के विरोध की ये घटनाएं चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है शासन करने वालों से, हमारी खोजी एजेन्सियों से, हमारी सुरक्षा व्यवस्था से कि वक्त आ गया है अब जिम्मेदारी से और ईमानदारी से राष्ट्र को संभालें। यह हम सबकी माँ है। हमारे जीते जी इसके पल्लू को कोई छू न पाये।
*ललित गर्ग
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