*मंदाकिनी श्रीवास्तव
दादी!
ओ दादी!
सुनो न!
कहाँ हो तुम?
जब से गयी हो तुम, पुकारा है मैंने
हर वक़्त तुम्हें।
जवाब नहीं दोगी न!
तुम सुन रही हो सब, मैं जानती हूँ।
जीने के तरीके में तुम्हारे
कहीं जगह नहीं थी
सूक्ष्म विषाणुओं की,
फिर न जाने कब? कैसे?
कहाँ से आ गया
हमारे अंदर अविश्वास का विषाणु?
हम विज्ञान पढ़ते रहे,
तुम्हारे ही ज्ञान में 'वि' लगाकर,
तुम्हें पुरातन-पंथी कहकर
विषाक्त कर लिया स्वयं को ।
छुआछूत, बार-बार स्नान,
आराधना और उपवास की
भीतरी पर्तो में
तुम वैज्ञानिक थी।
सारे नियम कठोर थे तुम्हारे,
हमें तकलीफ होने लगी,
साँसे घुटती थीं,
पर
संकट में हैं साँसें आज
और हम नियम कठोर कर रहे हैं
वही कर रहे हैं
जो तुम कहा करती थीं।
कड़े नियम निभाने का दर्प
चमकता था चेहरे पर जो,
बूढ़ी होते-होते
अकेला हो गया और मिट चला।
सूनी,
हकबकाई -सी आँखों में तुम्हारी
पिछड़ा कहलाने का ठप्पा
दर्द देता होगा न!
नयी-नयी आधुनिकता ने
तुम्हें किया होगा
कितना ज़लील।
तुम्हारी सारी आस्थाओं को
ढकोसलों का नाम मिला होगा
तब,
अंदर की पीड़ा को पी गयी होगी चुपचाप तुम।
सुनो न!
तड़प रहा है मन
तुम्हें बताने को
कि तुम्हें उठाकर जिस सिंहासन पर
बैठी थी आधुनिकता
वह जगह ख़ाली है
अब कहीं से
तुम आ जाओ दादी! बस!
अब आ जाओ न!
हमें ज़रूरत है तुम्हारे विज्ञान की
जो नहीं सीखा तुमसे
वह सब सिखाओ न!
अंत तक थीं तुम्हारी साँसें
निर्मल, अडिग।
हमें भी जीना है ऐसे ही
लड़ना सिखाओ न दादी!
तुम्हारी बहुत याद आ रही है
तुम सही थी दादी
बिल्कुल सही।
*मंदाकिनी श्रीवास्तव
किरंदुल, जिला-दन्तेवाड़ा छ.ग.
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