* बलजीत सिंह बेनाम
न देखो ताज़ को तुम दिल्लगी से
मोहब्बत की है तुमने गर किसी से
हुआ अनजाने में इक क़त्ल जिससे
छुपाए फिर रहा था मुँह सभी से
जो इसमें अक़्स देखेंगे ख़ुदा का
ख़ुदा उनको मिलेगा शायरी से
कहीं टिकने नहीं देता मुझे ये
बहुत उकता गया हूँ अपने जी से
लड़ा के मज़हबों को क्या मिलेगा
कहाँ बुझती बताओ आग घी से
*बलजीत सिंह बेनाम, हासी
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